प्रकरण―१४
ब्रजयात्रा की झलक और कृष्णचरित्र।
"क्यों चौबे जी महाराख? कल वहाँ से भाग गयों आए?"
"भाजि का आयो जजमान? न भाजि आतो तो तुम्हारी न्याँईं मेरी हू गत बनाई जाती! डरिके भाजि आयो। मार के आगे तो भूत हू भाजै है! तामें मेरी सुलच्छनी के तो मैं एक ही हूँ!"
"और औरों की सुलक्षणियों के (प्रियंवदा की ओर मुस- कराकर) क्या बीस बीस होते हैं? क्यों सुलक्षणी?"
"हाँ! सुलक्षणी वही जो पति की झाडू से पूजा करे। (पति की ओर हँसती हुई) बस ये ही सुलक्षणी के लक्षण हैं।"
"और बीस बीस रक्खे!"
"काला मुँह ऐसी सुलक्षणी का!"
"नहीं माई? सवेरे ही सवेरे वाको कारो मुँह मति करो। मेरो तो वही अन्नदाता है। वाही के भाग तें अन्न मिलै है।"
"तब ही तो वह तड़के ही तड़के झाडू से खबर लेती है। (पति से चार नजरें होते ही होठों ही होठो मैं) आप भी एक ऐसी सुलक्षणी रखिए।
"तू ही (प्यारी की ओर हँसकर उसी तरह से) वन जा।