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हाल था वह प्यारे पाठकों ने गत ग्यारहवें प्रकरण में पढ़ ही लिया।

उस प्रकरण के अंत में बेहोशी की दशा में उसके मुँह से जो कुछ निकल गया था वही बात माता की जबानी सुन कर वह मन ही मन बहुत पछताई। उसने ऐसी भूल हो जाने पर अपने आप को कोसा भी बहुत। वह बोली―

"नहीं माँ! ऐसा नहीं! मैं न जाने क्या क्या बक गई? बात इस तरह हुई कि उन्होंने मुझे मार कूट कर घर से बाहर निकाल दिया। यह देख (अपने शरीर पर गिर जाने से जो चोटें आई थीं उन्हें दिखला कर) मार के निशान और निकाला इस लिये कि मैंने उनको उस छिनाल जिठानी के साथ देख लिया था। मेरा सब माल असबाब उन्होंने छीना है। विचारी मथुरा तो मेरे लिये जान तक देने को तैयार है। उसका आदमी मुझे क्या लूटेगा और मैं लाई भी क्या थी जिसे किसी ने लूट लिया। मेरे पास पहनने के लिये एक छल्ला तक तो रहने ही न दिया, फिर कोई लूटता भी तो क्या लूटता?, हाँ! रास्ते में एक कंजर जरूर मिल गया। बस उसी ने मेरी ऐसी खराबी कर डाली। हाय! अब मैं क्या करूँगी? जो बाबूजी ने मुझे निकाल दिया तो मेरा दुनियाँ में कहीं ठिकाना नहीं। भगवान मुझे मौत दे दे। ऐसे दुःख पाकर जीने से तो मारना अच्छा।"

"नहीं बेटी (आँसू पोंछती हुई) रोवै मत! मैं रक्खँगी