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उसने क्योंकर अपने पैर आप ही बँधवा दिए सो शायद समय आप ही आगे चल कर प्रकाशित कर दे किंतु अभी तक सुखदा के सिवाय उसे किसी ने नहीं पहचाना था और वह मथुरा के हाथ की गुड़िया थी। मथुरा जिस तरह नचावे उस तरह नाचने को तैयार थी और जो लोग लुटेरों को पकड़ने को आए उनमें से एक के हाथ का लट्ठ खाकर खोपड़ी फटजाने पर भी गिर कर हाय! हाय!! करने के बदले भाग कर वह हिरन हो गया था।

खैर। जो कुछ होना था सो हो गया और जो कुछ होगा, सो देख लिया जायगा किंतु इन लुटेरों को पकड़नेवाले कौन थे? इस किस्से को अधिक उलझन में डालने के बदले थोड़े में इस बात को यहीं खोल देना मैं उचित समझता हूँ। इन को पकड़नेवाले थे पंडित कांतानाथ। उनकी इच्छा न थी कि ऐसी कर्कशा स्त्री की रक्षा की जाय। यदि उनकी चलती तो वह उसके लुट जाने की खबर पाकर दुःखित होने के बदले एक पसे का प्रसाद बाँटते, और जब वह घर में से निकल ही गई ता फिर उसका कमी नाम तक न लेते क्योंकि वे उसके अत्याचारों के आगे तंग आगए थे और इसलिए उन्होंने पक्का मनसूबा कर लिया था कि ऐसी दुष्टा स्त्री से तो कुँवारा ही अच्छा। दिन रात के चौबिस घंटे में एक बार टिक्कड़ सेंक खाए और "जहाँ पड़ा मूसल वहीं खेमकूशल।" परंतु पितृ समान बड़े भाई के सामने कुछ भी न चली। प्रियंवदा के