"केवल इसीलिये नहीं। यह तो कर्तव्य है ही और अवश्य कीजिए परंतु जब आप गया श्राद्ध के लिये निकले हैं तब हज़ार संकट पड़ेने पर भी इस काम को श्रद्धा के साथ कीजिए। इसमें धर्म को धर्म और कर्म का कर्म दोनों हैं।"
"करेंगे तो श्रद्धा के साथ ही किंतु ऐसे दुष्ठों के आगे कहीं श्रद्धा का खून न हो जाय, भय इतना ही है।"
"जब आप जैसे दृढ़ संकल्प काम करने चले हैं पार ही उतरेंगे।"
"हाँ! परमेश्वर का भरोसा तो ऐसा ही है और इस प्रकार के कष्टों से बचने का उपाय भी सोच लिया है। इससे थोड़ा खर्च अधिक होगा। साथ उसी ब्राह्मण को ले चलेंने। अच्छा कर्मकांडी है। पंडों का हक पंडों को मिल जायगा। बस इतना ही बहुत है।"
"हाँ! बिचार तो ठीक है। परंतु क्यों जी आज कराहते क्यों हो? क्या डील कलकत्ता है? हाय मेरे प्राण बचाने में तुम्हारी यह दशा हुई! मुझे मरने ही दिया होता तो कौन सी दुनियाँ सूनी हो जाती! औरत पैर की जूती है। एक टूटी और दूसरी पहन ली!"
"जूती नहीं अर्द्धांगिनी! तेरे बिना आधा अंग रह जाता! लकवा मार जाता! और (कुछ मुसकुरा कर) 'कर्म का कर्म' कैसे होता?"
"क्यों फिर मसखरी! (आँखों ही आँखों में हँसते हुए)