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आख्यान ]
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सावित्री

"सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत् सकृत्॥
दीर्घायुरथवाल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा।
सकृद् वृतो मया भर्त्ता न द्वितीय वृणोम्यहम्॥
मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते।
क्रियते कर्म्मणा पश्चात् प्रमाण मे मनस्ततः॥"

अर्थात् हिस्सेदारी, कन्यादान और वाक्यदान ये तीनों एक ही बार होते हैं, इसमें फिर दुहराने की आवश्यकता नहीं रहती। दीर्घायु हो चाहे अल्पायु, गुणवान हो चाहे गुणहीन, जिसको एक बार पतिभाव से वरण कर चुकी, महाराज! फिर उसमें दूसरी बात होने की नहीं। जिसका अधिकार मेरे हृदय पर एक बार जम गया, वह किसी प्रकार हट नहीं सकता। किसी बात का निश्चय पहले मन ही से होता है, फिर पीछे से वह वचन द्वारा बाहर होता है; इसके बाद काम के ज़रिए किया जाता है। इसका सुबूत मेरा मन है। जिसको मैं अपना हृदय एक बार दे चुकी, उससे उस दी हुई वस्तु को लौटा लेना भयंकर अन्याय है। सतीत्व-धर्म का अपमान करना स्त्रियों के लिए भारी पाप है। सतीत्व-धर्म के आगे मैं अपने जीवन को भी तुच्छ समझती हूँ।

सावित्री की इन बातों को सुनकर देवर्षि का हृदय प्रसन्न हो गया। उन्होंने देखा कि बचपन से सुख-विलास में पली होने पर भी फूल सी सुकुमार सावित्री का हृदय कर्त्तव्य के लिए कठोर है; उन्होंने देखा कि सावित्री जीवन में आनेवाले अशुभ को गले से लगाने के लिए मुस्तैद है। सावित्री की उस स्वाभाविक कोमलता में ऐसी मज़बूती देखकर देवर्षि प्रसन्न हुए। वे समझ गये कि कोमल-बालिका एकनिष्ठा के बल से अशुभ के अन्धकार में शुभ की किरण पहुँचाकर स्त्रीत्व के इतिहास में एक नया युग ला देगी।