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[दूसरा
आदर्श महिला

हताशों में जो ढाढ़स है वही देवी आज उससे लिपटने के लिए वनभूमि के रास्ते में खड़ी है।

दो सीधी सड़कें दो ओर से आकर मिल गई हैं। पास ही कुञ्ज है। सावित्री के वहाँ पहुँचने पर एक सखी बोली—"राजकुमारी! देखो यह स्थान अत्यन्त सुन्दर है मानो वसन्त की शोभा मूर्ति धरकर वन को शान्त और शीतल बनाये हुए है। अलग-अलग दिशाओं से आकर दो सीधी सड़कें कैसी मिल गई हैं। सखी! ऐसा जान पड़ता है कि यह प्रेम और पवित्रता की पुनीत मिलन-भूमि है।" यह सुनकर सावित्री देवी ने बड़ा हर्ष प्रकट किया। इतने में साथियों से बिछुड़ा हुआ सत्यवान उन रास्तों के मोड़ पर आ पहुँचा। आँखें चार हुईं। दोनों के चञ्चल नेत्रों की पलकें खड़ी हो गईं। दोनों ने सोचा—अहा! क्या ही सुन्दर है! दोनों के हृदय में धकधकी शुरू हो गई। राजकुमारी की आँखें नीचे को हो गईं। नवीन ऋषि-कुमार के रूप-समुद्र में सावित्री डूब गई। अचानक शरीर में रोमाञ्च को और माथे पर पसीने को देखकर बुढ़िया दाई ने सावित्री के मन के भाव को ताड़ लिया और सत्यवान! अकेला सत्यवान वहीं खड़ा होकर न जाने क्या-क्या सोचने लगा। वह यह बात भूल गया कि महर्षि के पास मुझे जल्द जाना है। वह सोचने लगा—यह क्या हुआ? हृदय-मन्दिर में यह किस देवी के नूपुर की मृदु ध्वनि है, वासना के द्वार पर यह किसका पुलकस्पर्श है।

सत्यवान बेसुध होकर सोच रहा है, इतने में पीछे से उसके सखा ने आकर मुसकुराते हुए कहा—"सखा सत्यवान! तुम्हारे अभिप्राय को हम लोगों ने समझ लिया। महर्षि के पास शीघ्र जाने के बहाने जो हम लोगों को छोड़कर चले आये तो यहाँ, रास्ते में, इस तरह बेसुध क्यों हो गये?" सत्यवान ने अपने को सँभालते हुए सखा के कन्धे