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आख्यान]
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सीता

कभी दुःखी न हों । तुमसे एक बात और कह देती हूँ। तुम आर्य्यपुत्र के चरणों में निवेदन करना कि उनके त्याग करने से मैं दुःखित नहीं हूँ। जिस राज-धर्म के लिए उन्होंने मुझे छोड़ दिया है, उनका वह राज-धर्म सफल हो। आज से उनका मङ्गल मनाना ही मेरी नई साधना का मूल उद्देश होगा। लक्ष्मण! शोक छोड़ो; मेरे प्रति तुम्हारा मातृवत् व्यवहार मुझे सदा याद रहेगा। वत्स! आर्य्यपुत्र से कहना कि वह मुझे छोड़कर अब पछतावें नहीं। मैं दूसरे जन्म में भी उन्हीं को स्वामी चाहूँगी। गुणवान् लक्ष्मण! अगर मेरा फिर स्त्री का जन्म हो तो तुम्हारे ही जैसा देवर पाऊँ। वत्स! जाओ, अब देर मत करो। आर्य रामचन्द्र तुम्हारे लौटने की बाट देख रहे होंगे। जानो, सासुओं के चरणों में मेरा प्रणाम निवेदन करना। वत्स! और एक बात है कि मेरी प्यारी बहनों को कुछ दुःख न होने पावे। उनका हृदय मर विरह से बहुत व्यथित है। मेरी शपथ है, तुम उनका मन रखने का सदा ख़याल रखना। और आर्य्यपुत्र के चरणों में मेरा साष्टाङ्ग प्रणाम निवेदन करके कहना कि वे मेरे लिए विलाप करके अपने कर्त्तव्य से न चूकें। और यह भी कह देना कि पत्नी-भाव से मुझे त्याग देने पर भी साधारण दीन प्रजा के भाव से ही मेरा स्मरण करें।

लक्ष्मण प्रणाम और प्रदक्षिणा करके बिदा हुए। जहाँ तक नज़र गई वहाँ तक सीता लक्ष्मण की ओर ताकती रहीं। अन्त में लक्ष्मण जब गङ्गापार उतर गये तब सीताजी उनको न देखकर सिर धुनने और रोने लगीं। गङ्गाजल से शीतल वायु सीता देवी के पसीने और आँसुओं को पोछने का प्रयास करता था किन्तु हृदय की आग उस जल-धारा को और बढ़ाती ही जाती थी। गङ्गा के किनारे खड़े होकर सीता ने सोचा—