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आख्यान ]
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सीता

हुआ। जिस आशा को हृदय में रखकर मैं इस विषम समुद्र में उतरा था आज मेरी वह आशा सफल हुई। आज मेरा युद्ध-श्रम, लक्ष्मण का ऐसा त्याग-स्वीकार और शक्ति-पीड़ा, प्राणाधिक हनुमान का भयानक समुद्र-लंघन, प्रेममूर्त्ति सुग्रीव और धर्मात्मा विभीषण तथा और दूसरे वानर सैनिकों की जीतोड़ चेष्टा सफल हुई। सिद्धि जैसे साधना का कष्ट भुला देती है वैसेही आज मेरी सदा आनन्दः दायिनी सीता देवी ने सब क्लेश दूर कर दिया।

रामचन्द्र के मुँह से निकले हुए अमृत-वचन सुनकर सीताजी सब दुःख भूल गईं। उनका मुख-कमल सौभाग्य की अपूर्व किरण से खिल गया। आनन्दाश्रु से उनके मृग-समान दोनों नेत्र, ओस से भीगे कमल की तरह, अपूर्व शोभा देने लगे।

इस दृश्यमान जगत् में भविष्यत् की दुर्गम अज्ञात मूर्त्ति के साथ मनुष्य की आशा और आकांक्षा सदा झगड़ती रहती है। कहीं आशा और आकांक्षा ने भविष्यत् को पहचान लिया है और कहीं भविष्यत्, आशा और आकांक्षा के कल्पित चित्र की दिल्लगी उड़ाता है। हम लोग यहाँ पर जिस बात की कल्पना भी नहीं कर सके थे वही बात हुई। विरह से व्याकुल साध्वी के सतीत्व के प्रभाव से हम लोगों ने मिलन-सुख की जो आशा की थी उसके बदले भीषण भविष्यत् ने काली रोशनाई से न जाने कैसी भयानक बात लिख रक्खी थी!

रामचन्द्र सीता के मुँह की ओर देखकर सब दुःख भूल गये। उनके हृदय में प्रेम-वीणा बज उठी। वह इतने दिन से विरह के टूटे तार पर प्रेम की जो साधना करते थे वह साधना आज पूरी हुई। उस वीणा की मधुर तान से उनका हृदय उछल पड़ा। सहसा उनके इस सुख में बाधा पड़ी। उनकी उस साधना ने अचानक विसर्जन