की झंकार और चलाये हुए बाणों की ज्योति, उसे यमराज की भीषण हुंकार तथा हास्य के समान मालूम होने लगी। रामचन्द्र ने ब्रह्मास्त्र चलाकर उस दुष्ट को मार डाला।
युद्ध के अन्त में रामचन्द्र ने मृत रावण की अन्त्येष्टि करने के लिए विभीषण को आदेश दिया। ढेर का ढेर चन्दन इकट्ठा किया गया। विभीषण ने त्रिभुवन को जीतनेवाले रावण के विशाल शरीर को घी और मधु से लपेटकर तथा कौशेय वस्त्र से ढककर चिता पर रक्खा और उसकी आत्मा की शान्ति मनाकर चिता में आग लगा दी। चिता दहक-दहककर जलने लगी। उसका धुआँ आकाश में छा गया। घी, धूप और चन्दन की सुगन्ध में सम्मिलित होकर रावण की आत्मा मानो धुएँ की सीढ़ी द्वारा सदा आनन्दमय स्वर्गलोक में चली गई*[१]।
रामचन्द्र ने शोकार्त्त लंका की प्रजा में शृंखला और शान्ति स्थापित करने के लिए विभीषण को लङ्का के राज-सिंहासन पर तुरन्त बिठाया। सहस्रों अनाथ स्त्रियों का रोदन और पुत्र खोई हुई माताओं का विलाप पत्नी से बिछुड़े हुए राम को व्यथित करने लगा। रामचन्द्र के स्मरण-पट पर सीता की मोहिनी मूर्त्ति नये भाव में देख पड़ी। रामचन्द्र की आज्ञा से हनुमान् ने अशोक वन में जाकर जानकी को यह सब समाचार सुना दिया।
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सीताजी इतने दिन तक जिसकी मृत्यु मना रही थीं, आज उसका मृत्यु-समाचार सुनकर आनन्द से अधीर हो गईं। उनकी आँखे आनन्दाश्र से, ओस पड़े हुए कमल-दल की तरह, शोभा देने
- ↑ *अध्यात्मविद्या के पण्डितों की राय है कि पार्थिव माया-बद्ध प्राणियों की मृत्यु के बाद भी उनकी आत्मा अपनी लाश के आसपास मँडराती रहती है। अन्त्येष्टि के बाद आत्मा दूसरी जगह चली जाती है।