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आख्यान]
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सीता

लंका में आ जाने की, बात सुनकर रावण क्रोध से अन्धा हो गया। उसने युद्ध की तैयारी की तुरन्त आज्ञा दी। सती की उसास से सुलगी हुई आग लपट फैलाकर लङ्कापुरी को निगलने दौड़ी।

सदा न्याय-मार्ग पर चलनेवाले रामचन्द्र राक्षसी धोखे को धर्म से दबाकर राक्षस-वंश के हृदय में कँपकँपी पैदा करने लगे। भयानक विपत्ति पड़ने से रावण की मति स्थिर नहीं थी, इससे वह छल-कपट करने लगा। विभीषण और उनकी साध्वी पत्नी सरमा-द्वारा, राक्षस के फैलाये हुए, कपट-जाल का भेद खुलने लगा। विधाता ने मानो कृपा कर गुप्त समाचार देने और मायाजाल मिटाने के लिए उक्त धर्मात्मा स्त्री-पुरुष को विपन्न सीता-राम के पास भेजा था।

घोर युद्ध आरम्भ हुआ। एक ओर दैव प्रभाव है और दूसरी ओर राक्षसीय बल। दोनों दलों की बल-परीक्षा से रण-भूमि भयानक हो गई। इस संग्राम में और कुछ चाह नहीं है; सिर्फ़ एक दूसरे का ख़ून देखना चाहता है। इससे दोनों प्रबल शक्तियाँ आज साक्षात् महाकाल बनकर संमर-भूमि में खड़ी हैं। सीता के विरह से इधर रामचन्द्र उदास हैं, उधर अभिमानी रावण अपने पक्ष के अगणित योद्धाओं के मारे जाने से शोकार्त्त है। इस भीषण युद्ध में पृथ्वी बारम्बार काँपने लगी। धनुष की टंकार से रणभूमि ने करालभाव धारण किया। आकाश-मार्ग से जानेवाले बाण मानो अट्टहास कर भय उत्पन्न करने लगे। अचानक रामचन्द्र ने दुष्ट रावण को मारने के लिए विश्व का विनाश करनेवाले अपने धनुष पर ब्रह्मास्त्र चढ़ाँया।

रावण ने देखा कि मृत्यु निकट है। उसे जान पड़ा कि अस्त्र-मुख में यमराज आकर उसके लिए बाट देख रहे हैं, और धरती उसके पैरों के नीचे से खिसक गई है। स्वपक्ष और विपक्ष के अगणित वीरों से भरा हुआ युद्ध का मैदान उसे प्रेतपुरी जैसा मालूम होने लगा। अस्त्रों