पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/४६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान ]
३३
सीता

है। उसे देखकर मैंने अपना सब परिश्रम सार्थक समझा। साधना पूरी होने की आशा से मेरा हौसला बढ़ गया। उस स्त्री के शरीर पर गहने नहीं थे। उसको चारों ओर से घेरे हुए भयानक चेहरेवाली राक्षसियाँ बैठी थीं। हे रघुवीर! मैंने देखा कि मेरी माता ने, इस प्रकार घोर शत्रुओं से घिरी हुई होने पर भी, धैर्य को नहीं छोड़ा। पति के प्रेम का मधुर ढाढ़स ही मानो उन साध्वी का महिमान्वित किये हुए है। राक्षसियों की कड़ाई से उनके धैर्य का पुल टूटा जाता है, वे रो-रोकर बेज़ार हो रही हैं। उनके गालों पर से बहते हुए आँसुओं से मानो स्वर्गीय-ज्योति निकल रही है। मैंने पेड़ की आड़ से उस पवित्र मूर्त्ति को देखकर समझा कि यही मेरी माँ हैं। लङ्का में इतनी सुन्दर स्त्रियाँ देखीं किन्तु किसी को माँ कहने की इच्छा मुझे नहीं हुई। उनको देखकर मेरी मातृभक्ति जाग उठी। पेट भरकर 'माँ' 'माँ' पुकारा। देखा कि देव दाहिने हुए। शराब पीकर मतवाली बनी हुई, पहरवाली राक्षसियाँ न जाने क्यों वहाँ से टल गईं। अवसर पाकर मैं वृक्ष की डाली पर बैठे-बैठे गुनगुनाकर आपकी कीर्ति गाने लगा। अचानक आपकी कीर्ति से आकृष्ट होकर उन्होंने सिर उठाकर वृक्षशाखा की ओर दृष्टि की। मैंने प्रणाम करके उन्हें अपना परिचय दिया। सरल स्वभाववाली माता राक्षसों से ठगी जाकर हर बात में सन्देह करती हैं। इसी से पहले मुझे राक्षसी माया समझ कर घबराती थीं। यह ताड़कर मैंने उनको आपकी दी हुई मुंदरी दी। उन्होंने मानो खोया हुआ धन पाया। उनके मुख-मण्डल पर आनन्द की झलक दीख पड़ी। उन्होंने डबडबाई आँखों से और गद्गद कण्ठ से आपका और लक्ष्मण का कुशल-मङ्गल पूछा। मैंने आपका समाचार कहा तो उदास बनी हुई माँ को मानो अपार दुर्भाग्य-समुद्र में किनारा मिल गया।