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सीता

पास पहुँचा दे सकता हूँ।" सीता ने राक्षसों के डर से, और अपनी इच्छा से पर-पुरुष को छूना सती-धर्म के विरुद्ध समझकर, ऐसा करने की आज्ञा नहीं दी।

तब हनुमान् ने कहा—"अच्छा, तो मैं स्वामी रामचन्द्र से जाकर आपका हाल कहूँगा। उनके लिए एक-एक घड़ी युग के समान बीतती है। अब मैं विलम्ब नहीं करूँगा।" सीता ने कहा—अच्छा बेटा! जाओ। तुम्हारी अभिलाषा पूरी हो, तुम चिरजीवी हो।

हनुमान् ने सीता से बिदा होकर सोचा कि ज़रा लङ्का की शोभा और राक्षसों का बल तो देखता चलूँ। यह सोचकर हनुमान् रावण के बाग़ में घुस गये। बन्दर के उपद्रव से फले हुए वृक्षों की डालियाँ टूटने लगीं। वन के रखवालों ने तुरन्त रावण के पास जाकर ख़बर दी। एक छोटे से बन्दर के हाथ से उपवन की दुर्दशा होते सुनकर रावण ने आज्ञा दी कि जैसे बने उस बन्दर को पकड़ लाओ।

राक्षसों ने बड़ी कठिनाई से हनुमान् को पकड़कर रावण के पास हाज़िर किया। रावण ने क्रोध से बन्दर की ओर देखकर कहा—"इस दुष्ट की पूँछ में तेल से भिगोया हुआ कपड़ा लपेटकर आग लगा दो।" राक्षसों ने ऐसा ही किया। "रामचन्द्र की जय" कहकर हनुमान् लङ्का में एक घर से दूसरे घर पर उछल-उछलकर घूमने लगे। अब क्या था, सोने की पुरी लङ्का के महल जलने लगे। राक्षस देखकर हाय हाय करने और कहने लगे कि यह हम लोगों की मूर्खता का ही फल है। सीताजी के आशीर्वाद से हनुमान को आग की लपट बर्फ़ के समान ठण्डी मालूम होने लगी।

इधर अशोक-कानन में करुणा-मूर्त्ति सीता देवी राक्षसों को चिल्लाहट को सुनकर और अग्नि की भयानक लपटों को देखकर डर गईं। उन्होंने सोचा कि यह क्या हुआ। अग्निदेव के इस प्रचण्ड कोप से