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आख्यान ]
२१
सीता

बुझा गया, उनकी सदा शान्त रहनेवाली प्रकृति में अशान्ति की आग फूँक गया। सीता का मातृ-भाव से उन्नत हृदय आज व्यर्थ के सन्देह से झुक गया। सीता के उस अतर्कित भावान्तर और भयङ्कर मूर्ति को देखकर लक्ष्मण विस्मित और क्रुद्ध होकर डबडबाई आँखों से झटपट कुटी से चल पड़े।

अवसर पाकर दुराचारी रावण ने, संन्यासी के वेष में, सीता के पास जाकर भीख माँगी। कुटीर-वासिनी असहाया सीता ने अतिथि- सत्कार में त्रुटि होने के भय से, अपना परिचय देकर, संन्यासी के लिए आसन और पाद्द दिया। किन्तु रावण ने इस सत्कार की ओर ध्यान नहीं दिया। उसने छूटते ही अपना अभिप्राय प्रकट किया। सीता ने झिड़ककर घृणा-पूर्वक कहा—अरे दुष्ट राक्षस! तू ऐसी दुष्ट आशा क्यों रखता है? मेरे स्वामी देवताओं के पूज्य, मूर्तिमान् धनुर्वेद, चरित्र में समुन्नत पर्वत की तरह विराट हैं। तू किस साहस से पाप की ऐसी बात बोलता है? तेरा यह असम्भव प्रयत्न देखकर मुझे विस्मय होता है। क्या तू नहीं जानता कि मैं सत्य-प्रतिज्ञ, आदर्शचरित्र, पुरुष-श्रेष्ठ रामचन्द्र की सहधर्मिणी हूँ? मैं महासागर छोड़कर गढ़ैया को क्यों चाहने लगी? अरे गीदड़! तू क्या पुरुष-सिंह रामचन्द्र के अतुल पराक्रम को नहीं जानता? धूर्त! तू गीदड़ होकर सिंहिनी की अभिलाषा करता है? क्षुद्र गढ़ैया होकर असीम महासागर को गोद में लेना चाहता है? जो तुझे प्राण प्यारा है तो पाप-वासना छोड़कर शीघ्र यहाँ से भाग। तेरी पाप की बात से यह स्वाभाविक सौम्य वन-भूमि और शान्त शीतल सन्ध्या कलुषित हुई है। अरे पापी, तेरी पाप की बात से वृक्ष के पत्ते ठिठक गये हैं; सन्ध्या का सूर्य्य लाल आँखें करके तेरे सत्यानाश की ओर देख रहा है। तू यहाँ से काला मुँह कर। एक बार इन्द्राणी का अपमान करके