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आख्यान]
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चिन्ता

महाराज! 'अयोग्य कभी योग्य से नहीं मिल सकता', यही विधाता की आज्ञा है। मैं प्राग्‌देश का राजा श्रीवत्स हूँ, ग्रह-दशा के फेर में पड़कर यह दुर्गति भोग रहा हूँ।

अब राजा के अचरज की सीमा नहीं रही। वे गिड़गिड़ाकर अपने बुरे व्यवहार के लिए उनसे क्षमा माँगने लगे। फिर बोले—"महाराज! मैं आपका सब हाल सुन चुका हूँ। दूत की ज़बानी मैंने सुना था कि आप ग्रह के फेर में पड़ने से राज्य छोड़कर चले गये। मेरा बड़ा भाग्य है कि मेरी सौभाग्यवती बेटी ने आपको जयमाल पहनाई।" श्रीवत्स ने कहा—राजन्! दया करके अब एक काम और कीजिए। मेरी रानी चिन्ता इस दुष्ट सौदागर की नाव पर कैद है। कृपा करके उसका उद्धार कर उसे राजमहल में लाने का जल्दी उपाय कीजिए।

सैकड़ों नौकर-चाकरों के साथ राजा तुरन्त नदी-किनारे पहुँचे और बँधी हुई नाव के ऊपर चढ़ गये। उन्होंने देखा कि एक कोढ़ की रोगिनी उस नाव के एक कोने में बैठी है। उसकी आँखों से आँसू जारी हैं। उसका शरीर रह-रहकर काँप उठता है।

राजा ने कहा—बेटी! उठो। तुम्हारी दुःख की रात बीत गई। महाराज श्रीवत्स से तुम बहुत जल्द मिलोगी।

रानी चिन्ता ने श्रीवत्स का नाम सुन, मारे खुशी के पुलकित होकर पूछा-—महाराज कहाँ हैं? अगर इतने दुःख भोगकर भी महाराज के चरणों का दर्शन पाऊँ तो अपने को धन्य मानूँगी।

राजा बाहुदेव ने पहले ही से पालकी का प्रबन्ध कर रक्खा था, किन्तु रानी चिन्ता ने कहा—नहीं पिताजी! मैं पालकी पर नहीं चढ़ूँगी। स्वामी परम गुरु हैं, उनके पास पैदल ही जाना ठीक है।

उस स्त्री के पतिव्रत-धर्म की यह बात सुनकर राजा बाहुदेव को