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आख्यान]
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चिन्ता


शनि—श्रीवत्स! चिन्ता मत करो। तुम बड़े भाग्यवान् हो। ज्ञानवती शक्तिवाली नारी तुम्हारे हृदय की अधिष्ठात्री देवी है। तुम इस पति-परायणा के स्वामी होकर एक नये जगत् के राजा हुए हो। तुममें देवत्व आ गया है। शक्तिमयी नारी के सतीत्व के प्रभाव से तुम देवता-से हो गये हो।

शनि की बात सुनकर राजा श्रीवत्स ने बड़े अचरज से कहा—देव! इस चक्करदार मामले का फैसला मैं अभी चटपट नहीं कर सकता। आज मुझे अच्छी तरह सोचने-विचारने के लिए मुहलत दीजिए। दया करके आज आप लोग इस दीन की कुटी में ठहरिए। कल मैं इसका उत्तर देने की कोशिश करूँगा।

शनि—यही सही, किन्तु आज तो हम लोग स्वर्ग को जाते हैं। तुम्हारे मेहमान नहीं हो सकते।

श्रीवत्स—हे छाया के पुत्र! हे समुद्र की बेटी! यह मैं जानता हूँ कि दुःखों से लदी इस पृथिवी पर देवता नहीं रहते, किन्तु देवताओं के लिए सत्-असत् और ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं होना चाहिए। भक्तों से ही उनकी मर्यादा बढ़ती है। भक्त के चढ़ाये मामूली फूल, स्वर्ग के खिले हुए पुष्प की बराबरी से, देवता के चरणों में स्थान पाते हैं।

शनि—श्रीवत्स! तुम्हारी इस दीनता और सज्जनता को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ किन्तु न्याय करनेवाले के घर फै़सला करानेवाले का पहुनई करना बेजा है; क्योंकि साथ रहने और पहचान हो जाने से पक्षपात आ जाता है। इसलिए मेहमानदारी को मंज़ूर न करने से मन में बुरा न मानना।

तब लक्ष्मी ने कहा—श्रीवत्स! पहुनई को स्वीकार न करने से दुःख मत मानना। सूर्य के पुत्र शनि ने जो कुछ कहा है वह सत्य