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आख्यान]
२३१
चिन्ता

हो गई हैं; किन्तु यह नहीं जानती कि इस पृथिवी पर मैं आगे कैसे बढूँगी। शास्त्र में कहा है—'स्वामी ही स्त्री-जाति के सर्वस्व हैं, स्वामी ही प्रेम के पत्यक्ष देवता हैं, स्वामी ही शिक्षा-दीक्षा में उसके गुरु हैं। हे जीवन के सर्वस्व! दया करके आर्य-स्त्री के बड़प्पन के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए मुझे योग्य शिक्षा दीजिए।

चिन्ता के मुँह से यह बात सुनकर राजा श्रीवत्स बहुत सुखी हुए। उनका हृदय आनन्द से उछल पड़ा। उन्होंने सोचा, इन्द्र के इन्द्रत्व में जो सुख नहीं है वह सुख मेरे राज-परिवार में है। नारी ही साक्षात् देवी है। मेरा राज्य पवित्र स्त्री के प्रेम और कोमल मधुर भाव से पूर्ण है। मैं धन्य हूँ जो मुझे ऐसी पतिप्राण-पत्नी मिली है। इस प्रकार सोचकर राजा ने चिन्ता से कहा—रानी! तुम अशिक्षिता कैसे हो? पुस्तकें पढ़ने से ही कुछ शिक्षा नहीं होती। असल में हृदय की उन्नति ही शिक्षा है। तुमने बचपन में अपने माता-पिता से जो शिक्षा पाई है वह बहुत ऊँची है। तुम्हारे हृदय में अनन्त ज्ञान है। तुमको और कुछ शिक्षा देने की ताक़त मुझमें नहीं है। न्याय के कठिन विचार में भी मैं तुम्हारी ही सलाह लेता हूँ।

इस प्रकार बातचीत करते-करते सबेरा होने का लक्षण दिखाई दिया। पूर्व दिशा में ललाई छा गई। चिड़ियाँ घोंसलों से निकलकर पेड़ों पर चहचहाने लगीं। दूर मन्दिर से तड़के की आरती का शब्द सुनाई देने लगा। राजा और रानी दोनों, भजन-पूजन आदि करने के लिए पूजाघर को चले।

[५]

एक दिन स्वर्ग में शनि के साथ लक्ष्मी का झगड़ा हुआ। झगड़े की बात यह थी कि 'दोनों में बड़ा कौन है'। शनि कहते 'मैं बड़ा हूँ, और लक्ष्मी कहती 'मैं बड़ी हूँ'। देवताओं की सभा में इसका