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आख्यान]
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शैव्या

नहीं रहती। यह जीव का धर्म है। संसार में यह धर्म मनुष्य के चित्त के साथ मिल-सा गया है। आप लोग अन्तर्यामी हैं। महाराज के हृदय की अवस्था को समझकर आप शान्त हो जायँ। उपाय न देखकर ये दक्षिणा नहीं दे सके। दया करके दक्षिणा की रकम देने का उपाय आप ही बता दीजिए।

रानी शैव्या की इस विनती को सुनकर विश्वामित्र ने कहा—करूँ क्या? दक्षिणा की रक़म मिले बिना मेरी इच्छा पूरी नहीं होगी। इसी से इतने दिन तक बाट देखता रहा। देखो, मनुष्य इस पृथिवी पर बिलकुल निराधार कभी नहीं होता। सदाचार, परोपकार आदि मनुष्य की आत्मा के आधार हैं और इस संसारी जीवन का आधार उसकी देह है। अब तुम समझीं कि दक्षिणा की रक़म देने का उपाय क्या है?

बात तो ठीक है, इतने दिन हम लोग इसको नहीं समझ सके।—यह सोचकर शैव्या ने स्वामी के मुँह की ओर देखकर कहा—महाराज! आपने दक्षिणा देने के उपाय को समझा? तुम मुझे बेचकर महर्षि की दक्षिणा दे दी।

पत्नी के मुँह से यह बात सुनकर हरिश्चन्द्र ने व्याकुल होकर कहा—"रानी, तुम यह क्या कहती हो? अगर ऋषि के कोप से जल भी जाना पड़े तो मुझे मंज़ूर है परन्तु मुझसे ऐसा बुरा काम नहीं होगा।" यह सुनकर विश्वामित्र का क्रोध और भी भड़क उठा। उन्होंने शेर की तरह गरजकर कहा—"राजा! क्या यही तुम्हारी भलमनसी है? दक्षिणा देना मंज़ूर करके अब चालबाज़ी से उसे हज़म किया चाहते हो? अच्छा, अब मैं तुमसे दक्षिणा नहीं माँगूँगा।" अब शाप देने के लिए ऋषि ने हाथ में जल लिया।

विश्वामित्र के क्रोध को और उन्हें चुल्लू में जल लेते देखकर