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आख्यान]
११
सीता


ले जाना चाहते थे। इससे सीता ने उनसे कहा--आर्यपुत्र! आप पण्डित हैं, शूर हैं, वीरवर हैं; आप मुझे राजधानी में रहने के लिए जो कुछ कहते हैं, सो सब प्रेम की अन्धी दृष्टि से। जो-जो दुर्घटनायें देखते हैं, वे कभी आपके योग्य नहीं। आपका यह उपदेश मेरे अनुकूल कर्तव्य नहीं है। आपके साथ, छाया की तरह, वन में जाना ही मेरा काम है। दम्पति में एक के सुख-दुःख में दूसरे का सुख-दुःख ऐसा मिला हुआ है जो अलग नहीं हो सकता। जहाँ इसमें कसर है वहाँ दाम्पत्य-धर्म सराहने योग्य है कि नहीं, इसका विचार आप ही के ऊपर है। स्वामी ही स्त्री का सर्वस्व है---स्वामी का सुख-दुःख ही स्त्री का सुख-दुःख है। फिर स्त्री सन्तम स्वामी के लिए छाया है, प्यासे स्वामी के लिए ठण्डा जल है। क्या आप मुझे ऐसी ओछी समझते हैं कि मैं आपके केवल सुख की संगिनी हूँ? दुःख के समय क्या मैं आपके दुख को स्वीकार कर आपको प्रसन्न नहीं कर सकती? स्वामी का साथ ही स्त्री के लिए राजपद है। क्या आप मुझको ऐसे गौरव के स्थान से हटाना चाहते हैं?

रामचन्द्र ने सीता से प्रेम-पूर्वक कहा--प्राणप्यारी! तुमने मेरे सामने जो दाम्पत्य-धर्म कहा, उसे मैं जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि स्त्री ही स्वामी के, तपे हुए जीवन में शरद-मंद-सुगन्ध वायु की तरह, सब कष्ट मिटा देती है। किन्तु लावण्य-लतिके! वनवास के कठिन क्लेश से जब तुम्हारी देह धूल में मुरझाई हुई लता की तरह कुम्हला जायगी, जब तुम्हारे ये महावर से रँगे हुए सुकोमल चरण कुश के गड़ने से व्यथित होंगे, जब वन में घूमनेवाले राक्षसों के डर से तुम्हारा---खिले हुए कमल के समान--मुँह सूख जायगा तब यह शोक उपजानेवाला दृश्य मुझसे देखा न जायगा। प्रियतमे! तुम्हारा यह प्रेम-पवित्र मुँह मेरे जीवन-आकाश का पूर्ण चन्द्र है, दुर्भाग्य-