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[चौथा
आदर्श महिला

हैं। तब विश्वामित्र ने डाँटकर कहा—"राजा! क्या तुम्हारा यही कर्त्तव्य है? हमारे साथ चाल चलना चाहते हो! यदि दक्षिणा नहीं देना चाहते तो यह बात तुम्हें पहले ही कह देनी थी! तुम इतने दिन से मुझे क्यों नाहक़ हैरान कर रहे हो? जो हो, अब मैं जानना चाहता हूँ कि आज तुम मुझे दक्षिणा की रक़म दोगे या नहीं?" राजा ने घबराकर कहा—"भगवन्! मैं दक्षिणा की रक़म का अभी तक कुछ भी बन्दोबस्त नहीं कर सका। कृपा करके एक पखवारे तक और ठहरिए।" यह बात सुनकर विश्वामित्र ने कहा—नहीं, अब एक दिन भी नहीं ठहरूँगा। आज ही मुझे दक्षिणा मिलनी चाहिए। अगर आज दक्षिणा मुझे मिल न गई तो जान लेना कि आज दिन डूबने के साथ-साथ मेरे क्रोध की आग से सूर्यवंश का नाम तक नहीं रहने पावेगा। राजा! फिर भी कहता हूँ कि मुझे आज ही दक्षिणा मिलनी चाहिए।

हरिश्चन्द्र ने ऋषिवर की ओर आँख उठाकर देखा कि क्रोध से भरी उनकी देह काँप रही है और आँखें आग बरसा रही हैं। राजा ने विकल होकर कहा—"ऋषिवर! मैं तो निराधार हूँ—मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मैं दक्षिणा कहाँ से हूँ? भीख माँगना क्षत्रिय का धर्म नहीं। कहीं नौकरी मिल जाय तो कर लूँ, किन्तु इस काशी में तो कहीं उसका भी ठिकाना नहीं।" यह सुनकर विश्वामित्र बोले—"मालूम होता है, दक्षिणा देना तुम्हारी शक्ति से बाहर है। भला तुमने मुझे इतने दिन रास्ता क्यों तकाया? तुमने आशा देकर इतने दिन मेरी तपस्या में बाधा क्यों दी? लो, मैं जाता हूँ।" विश्वामित्र वहाँ से दो ही चार पग चले होंगे कि रानी शैव्या ने क्रोधित ऋऋषि के दोनों पैर पकड़कर कहा—देव! पास में कुछ भी न रहने पर मति ठिकाने