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[चौथा
आदर्श महिला

और शास्त्रों के मर्म को जानते हैं, फिर स्त्री को ऐसी अनुचित आज्ञा क्यों देते हैं? आप मुझे नैहर जाने को कहते हैं किन्तु मैं ऐसा नहीं कर सकती। आपके साथ छाया की तरह जाना ही मेरा मुख्य काम है। इसलिए आप जहाँ जायँगे वहाँ मैं आपके साथ जाऊँगी। यह स्त्री का कर्त्तव्य है, इसलिए आपकी कोई बात मुझे इस कर्त्तव्य के रास्ते से नहीं हटा सकेगी।

तब हरिश्चन्द्र ने कहा—शैव्या! अब मैं तुम्हें नैहर जाने के लिए नहीं कहूँगा। मैंने पृथिवी दान करके तुमको पाया है। मैं इतने दिनों तक भोग-विलास में तुमको लालसा का खिलौना समझता था, किन्तु आज इस दीनता के बीच तुम्हारी गम्भीर पवित्र मूर्त्ति देखकर मुझे हिम्मत हुई है। देवी! मैं देखता हूँ कि अभागे बिना आश्रयवाले के पास तुम ममता की मूर्ति से अमङ्गल दूर करने के लिए स्नेह का हाथ फैला रही हो।

रानी—महाराज! आपने ठीक कहा है। स्त्री स्वामी के विलास ही के लिए नहीं है। स्त्री दुःख के समुद्र में स्वामी की जीवन-नौका के लिए दिशा बतलाने की कल है। स्त्री ही रास्ता भूले हुए पति को ध्रुव तारा है और विपत्ति में पड़े हुए पति के लिए स्त्री प्रत्यक्ष ढाढ़स है। आपकी विपद को गले से लगाने के लिए मैं आपके आगे चलती हूँ।

अब शैव्या ने हरिश्चन्द्र का हाथ थाम लिया। राजा ने कहा—मैं आज ही राजधानी छोड़ दूँगा। इसके लिए तुम तैयार हो रहो। रानी! मैंने तुमसे एक और बात नहीं कही। महर्षि को मैंने एक हज़ार मोहरें दक्षिणा में देने की प्रतिज्ञा की है, किन्तु इसके पहले ही मैं अपना सर्वस्व और समुद्रों-सहित धरती उनको दान कर चुका हूँ। इससे, राज्य के ख़ज़ाने से उनको वह दक्षिणा देने का अधिकार मुझे नहीं रहा। दक्षिणा देने के लिए मैंने महर्षि से एक पख-