रुकावट को दूर करके खुले हुए आकाश की विपुलता के साथ उसे मिला दिया है। देवी! आज मैंने पृथिवी के बाहर आकर जो नया सबक सीखा है उसकी मुझे ज़िन्दगी भर याद रहेगी। रानी! अब मैं राज्य का दान करके दुखी नहीं हूँ। मैं अब खूब समझ गया कि मैंने ज़रासी पृथिवी का दान करके अपार विश्वरूप के विशाल विश्व को पा लिया है। रानी! अब मैं दरिद्र नहीं हूँ। आज विश्वराज का अटूट रत्न-भाण्डार मेरे हाथ लगा है।
रानी—और क्या महाराज! आप तो दाता हैं, न कि दान लेनेवाले। भगवान् का दान अनन्त है, इसी से वे पूर्णरूप हैं। स्वामी! मैं कम-समझ स्त्री हूँ, तुमको में क्या समझाऊँगी? त्याग से ही मनुष्य धन्य होता है। इस माया की पृथिवी पर मनुष्य जिस दिन कर्त्तव्य के सामने अपनपौ को भूल जाता है उसी दिन वह सार्थक है। नाथ! आज आप इसी से धन्य हुए हैं! चिन्ता छोड़िए। एक बार देखिए, चिन्मयी जगज्जननी की प्रेमभरी गोद आपके ही लिए खाली पड़ी है।
राजा का उदास मुखड़ा सौभाग्य के गर्व से चमक उठा।
राजा ने कहा—शैव्या! मैंने महर्षि को पृथिवी दान कर दी है। इसलिए, इस पृथिवी पर रहने का अब मुझे कोई अधिकार नहीं। मैं इस पृथिवी के बाहर जाऊँगा। मैं चाहता हूँ कि तुम रोहिताश्व को लेकर नैहर जा रहो।
शैव्या ने हरिश्चन्द्र की बात से घबराकर कहा—नाथ! मुझे ऐसी अनुचित आज्ञा मत दीजिए। प्राचीन मुनियों ने स्त्री का दूसरा नाम सहधर्मिणी कहा है। पुरुष सुख या दुःख जिस दशा में रहे उसमें उसकी संगिनी स्त्री भी है। नाथ! स्वामी के साथ स्त्री का विधाता का बनाया हुआ यही पवित्र सम्बन्ध है। आप राजा हैं,