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[चौथा
आद‌र्श महिला

के आप राजा हैं और मैं रानी हूँ। इसलिए दुनिया की हज़ारों आफ़तें भी हम लोगों के हृदय को सता नहीं सकेंगी। आप इतने उदास होकर मेरे पास क्यों आये हैं? मुझे आपके इस प्रेम-पवित्र मुख पर हँसी की झलक ही अच्छी लगती है। स्वामी! आज किस दुर्भाग्य से मुझे इस मुखड़े पर आँसू देखने पड़े? प्रभो! दया करो, जल्दी बताओ कि आप इतने उदास क्यों हैं।

हरिश्चन्द्र ने उदास मुँह से, विश्वामित्र के आश्रम की सारी घटना कह सुनाई।

रानी शैव्या ने सुनकर हर्ष से कहा—महाराज! इसके लिए इतनी चिन्ता और उदासी क्यों? आप राजा हैं। दान देना राजा का धर्म है। आपके इस अनोखे दान से कोशल के छत्र का दण्ड ऊँचा हुआ है। नाथ! संसार का सुख कितने दिन के लिए है? उसके लिए प्रतिज्ञा को न तोड़कर आपने जो सच्चे दान-वीर की तरह दान किया है, यह तो कोशलराज के ही योग्य काम है। नरनाथ! इसके लिए इतना खेद! हे कोशलेश! चिन्ता को छोड़िए। देव! इस धरती पर सत्य सबसे ऊँचा है। आपने सत्य की रक्षा करके रत्नों से जड़े हुए जिस किरीट को पाया है वह अनमोल है। इसकी चमक से कोशल का राज-सिंहासन सदा जगमगाता रहेगा। संसारी दरिद्रता में ही तो अनूठे आनन्द का विकास है। हे ज्ञानवीर! आज आप इस बात को क्यों भूलते हैं?

हरिश्चन्द्र ने आँसू पोंछकर कहा—शैव्या! तुम्हें इतना ज्ञान है! अँधेरे में पड़े हुए स्वामी की बग़ल में प्रकाश की बत्ती लिये रहने से एकाएक तुम्हारे सुन्दर मुख पर जो यह शोभा फैल रही है, देवी! उसे मैंने इतने दिन तक नहीं देखा था। मैं तो हृदय को केवल कामना की छोटीसी कोठरी बनाये बैठा था। आज तुमने उसकी