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आख्यान]
१८९
चौथा

मलिन कर डाला है। नाथ! आज आप ऐसे उदास क्यों हैं? आपके चेहरे पर खेद की छाया देखकर मुझे बड़ा डर लगता है। कृपा कर इसका कारण जल्दी बतलाइए।

पत्नी की प्रेम-भरी बातें सुनकर हरिश्चन्द्र ने कहा—रानी! आज मेरे जीवन का नया दिन है। कोशल का यह राजसिंहासन, कोशल का धन-भाण्डार और कोशल की प्रजा आज से मेरी नहीं; और तो क्या, धरती माता का भी आज मैं त्यागा हुआ पुत्र हूँ; जो बिना घर-द्वार का है उसका आसरा वृक्ष के नीचे है; किन्तु रानी! आज इस अभागे हरिश्चन्द्र का शोक से विकल शरीर वृक्ष के नीचे भी स्थान नहीं पावेगा।

रानी ने बड़ी घबराहट से पूछा—नाथ! आप यह क्या कह रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आता। आप तो कोशल देश के चक्रवर्ती सम्राट हैं, आपके झण्डे के नीचे पृथिवी के सारे राजा हाथ जोड़े खड़े हैं। आज आपके मुँह से मैं यह कैसी बात सुन रही हूँ? आपके मन में कुछ उन्माद तो नहीं हो गया है! ज़रूर ऐसा ही कुछ हुआ है। नहीं तो आज आपके उदास मुँह से ऐसी बेमतलब की बातें क्यों निकलतीं? आप तो मेरे पास आकर कितनी ही प्रेम-पूर्ण बातों में संसार का हाल बताते, और कितनी ही अच्छी-अच्छी कहानियाँ कहकर जी की उमङ्ग दिखाते थे। महाराज! दासी को उलझन में मत डालिए। मेरा कलेजा होनहार विपत्ति के डर से धक-धक कर रहा है। जल्दी बताइए, क्या विपदा पड़ी है। आप सच जानिए, चाहे जितनी आफ़तें क्यों न आवें, हम लोगों का यह प्रेम से मिलना नहीं रुकेगा। प्रेम कुछ पृथिवी की वस्तु नहीं है। वह तो पृथिवी के बाहर किसी बड़े उत्तम स्थान की चीज़ है। एक-दूसरे पर प्रेम करनेवाले दम्पति के हृदय में ही उसका सिंहासन है। महाराज इस अपूर्व प्रेम-जगत्