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आख्यान]
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शैव्या

ग़ज़ब करती थी। कभी वे चाँदनी रात में मदमात नयनों से तपोवन में फूलों की सम्पदा और तारों से जगमगाते हुए नीले आकाश की अलहदगी देखतीं। कभी उनकी हँसी की छटा से प्रकृति की उजली शोभा और भी बढ़ जाती। कभी बाँसों की रगड़ से निकली हुई सुरीली तान सुनकर उन्हें बड़ा मज़ा मालूम पड़ता। इस प्रकार वे पाँचों सखियाँ हृदय से वनदेवी के उस उम्दा संगीत को सुनते-सुनते सुध-बुध भूल जातीं।

[४]

शाप के फन्दे में फँसी अप्सराएँ विश्वामित्र के तपोवन के पास रहती थीं। उन्हें वैसा आनन्द लूटने की आदत थी जैसा कि स्वर्ग में रहनेवालों को प्रिय है। इसलिए वे मन की मौज से कभी गीत गातीं, कभी नदी-किनारे बैठकर ग़प-शप करतीं, कभी नदी के निर्मल जल में पैठकर जलक्रीड़ा करतीं और कभी तरह-तरह के फूलों की माला गूँथकर एक-दूसरे को पहनाकर हँसी-दिल्लगी में समय बिताती थीं; किन्तु इतने मज़े में रहकर भी बीच-बीच में उनकी उस स्वर्गीय जीवन के सुख की याद आ ही जाती थी।

इस प्रकार उन मदमाती पाँच सखियों के मनमाने घूमने-फिरने और फूल चुनने से आश्रम के फूलदार वृक्षों की शाखाएँ टूट गईं और उनकी ख़ूबसूरती मारी गई। अप्सराओं की क्रीड़ा-केलि से लताकुञ्जों में रौनक़ न रही।

एक दिन बड़े भारी तपस्वी विश्वामित्र हिमाचल की सैर कर तपोवन को लौटे। उन्होंने देखा कि मेरे तपोवन में घुसकर कोई फूल ले गया है और वृक्ष-लताएँ किसी के ऊधम से नष्ट-भ्रष्ट हो गई हैं।

संसार-त्यागी मुनि लोग आश्रम के वृक्षों और लताओं को बेटे-बेटी के समान मानते हैं। संसारी लोग गृहस्थी में रहकर जैसे पुत्र-