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आख्यान ]
सीता

महाराज दशरथ ने कहा---"इसी के लिए इतनी रूठी हो? तुम जो माँगोगी वही दूँगा।" राजा को क्या पता था कि सुगन्धित फूलों के भीतर ऐसा प्राणहारी विषधर सर्प छिपा बैठा है।

कैकेयी ने कहा---

"सुनहु प्राणपति भावत जी का। देहु एक वर भरतहि टीका॥

दूसर वर मांगों कर जोरी। पुरवहु नाथ कामना मोरी॥

तापल वेश विशेष उदासी। चौदह वर्ष राम वनवासी॥

राजा दशरथ सुनते ही मूर्च्छित हो गये। बड़े कष्ट से होश-हवास सँभालकर वे कहने लगे--"दुष्टे! तुम कोई दूसरा वर माँगो। जो राम जगत् को प्यारे हैं, जो भरत से भी तुम पर अधिक भक्ति दिखलाते हैं और जो राम सव सद्गुणों के भूषणस्वरूप हैं उन लोकाभिराम रामचन्द्र ने तुम्हारा ऐसा क्या बिगाड़ा है? तुम उनका सर्वनाश चाहती हो। राजा ने कैकेयी को बहुत कुछ समझाया। कभी विनय-वचन से, कभी सादर वाक्य से और कभी तिरस्कार करके उसे अपनी इच्छा त्यागने के लिए कहा। किन्तु कैकेयी ने, किसी तरह, अपना हठ नहीं छोड़ा। दशरथ ने सोचा कि कैकेयी का हृदय रेगिस्तान है, वह समवेदना के आँसू से भला क्यों तर होगा? वह तो उसमें सूख ही जायगा। यह सोचकर राजा रह- रहकर मूर्च्छित होने लगे।

धीरे-धीरे सब बातें राम के कानों तक पहुँचीं। वे पिता की प्रतिज्ञा पालने को तैयार हुए। वन जाने की इच्छा प्रकट करके वे माता का दर्शन करने चले। दासी ने कहा कि रानी पूजा घर में हैं। रामचन्द्र ने पूजा-घर में जाकर माता के चरण छुए। देवता की ओर ध्यान लगाये हुए कौशल्या ने, विशेष आनन्द प्रकट करके, रामचन्द्र को आशीर्वाद दिया।