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आख्यान]
१८१
शैव्या

कर प्रेम से कहा—अच्छा बेटा! मैं तुमको बहुत उम्दा मृग-छौना ला दूँगा।

[३]

एक दिन अमरावती में देवताओं की सभा बैठी। उस सभा में तरह-तरह की हँसी-ख़ुशी के साथ अप्सराओं का नाच-गान प्रारम्भ हुआ। तिलोत्तमा, रम्भा, उर्व्वशी, और मेनका आदि अप्सराओं का नाच होने लगा। कुछ नवसिख, नई उम्र की, अप्सराओं के बे-ताल हो जाने से देवताओं की उस बड़ी सभा की गम्भीरता नष्ट हो गई। देवराज इन्द्र ने उन अप्सराओं को शाप दिया—तुम लोगों ने इस देवसभा की गम्भीरता नष्ट कर दी है, इसलिए तुम दुःख से भरी पृथिवी पर जाकर दण्ड भोगो।

इन्द्र के चरण पकड़कर अप्सराओं ने बार-बार क्षमा माँगी और गिड़गिड़ाकर कहा—हे देवताओं के राजा! एक तो हम सीखी-सिखाई नहीं हैं, दूसरे जवानी के जोश ने हमको पागल-सा बना दिया था, इसी से हम लोगों के बेजाने ताल-भङ्ग हो गया। कृपा करके अभागिनियों के भूल से किये अपराध को क्षमा कीजिए।

इन्द्र के इस भयङ्कर शाप और अप्सराओं की गिड़गिड़ाहट को देखकर देवता लोग सोचते थे कि इनको सज़ा कुछ ज़ियादा दी गई है। इधर इन्द्र का चित्त भी अप्सराओं की गिड़गिड़ाहट से कुछ नरम हो गया। अब वे देवताओं के हृदय के भाव को समझकर अप्सराओं से बोले—"मेरी बात टल नहीं सकती। तुम पृथिवी पर जाकर महर्षि विश्वामित्र के तपोवन के पास रहो। तुम लोग जिस दिन अयोध्या के महाराज हरिश्चन्द्र को देखोगी उसी दिन शाप से छुटकारा पा जाओगी।" अप्सराएँ घोर निराशा में उसी आशा को हृदय में धरकर धीरे-धीरे देवलोक तजकर विश्वामित्र के