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आख्यान ]
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शैव्या

नये जीवन की सूचना कर रही हो। मैं धन्य हूँ, जो स्त्रियों में रत्न-स्वरूप तुम मेरे हृदय-सिंहासन की देवी हुई हो।

रानी---नहीं महाराज, मैं तो दासी हूँ। स्त्री स्वामी के पास देवी बनकर धन्य नहीं होती, वह उनके पास दासी बनने से सार्थक होती है। स्त्री का हृदय स्वामी की पूजा करके धन्य होता है और स्वामी का हृदय पत्नी को प्रेम देकर पवित्र होता है। महाराज! यही तो प्रेम है। इस प्रेम में जहाँ वासना की आग जलती है वहाँ सुख का घर जलकर ख़ाक हो जाता है। वह प्रेम नहीं है। वह तो जवानी का कपट से सना हुआ आमोद है; लालसा की झूठी तृष्णा है; काम की अग्निज्वाला है। महाराज! कामना का चुम्बन शान्ति देनेवाली अमृत की धारा नहीं है; वह तो सत्यानाश की उबलती हुई मदिरा है। प्रेम का अड़्कुर उसमें सदा के लिए सूख जाता है। प्रेम में जहाँ कामना है वह स्थान केवल अमङ्गल का मरघट है।

हरिश्चन्द्र ने कहा---रानी! मैं तुम्हारी बात समझ गया। तुमने इस ग्रीष्म की दुपहरिया में प्रणय से विह्वल स्वामी के पास जिस बात की भूमिका बाँधी है उसे मैं भली भाँति समझ गया हूँ।

रानी---महाराज! समझ गये? क्यों नहीं समझोगे। सूर्य की किरणें क्या सदा मेघ में छिपी रह सकती हैं? आपकी जो कीर्ति- कहानी सदा के लिए पृथिवी पर चमकती रहेगी वह क्या कभी छिप सकती हैं? आपको बड़प्पन के मुकुट से सजे हुए देखने के लिए मेरा जी तरस रहा है। महाराज! वासना का अन्त नहीं है, एक के पूर्ण होने पर एक और वहाँ पहुँच जाती है। एक बार बीती हुई बातों की याद कीजिए। जब गरमी में राजधानी के राजमहल अग्नि के कुण्ड-समान गरम हो जाते तब इन्हें छोड़कर आप बर्फ़ से ढके हुए हिमाचल की शान्त शीतल चोटियों पर जा रहते; फिर वर्षाऋतु आने पर,