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[ चौथा
आदर्श महिला

और उनका सब कुछ थी। देह अलग-अलग होने पर भी उन दोनों के प्राण हृदय के मिलन से एक हो गये थे।

एक दिन राजा, दुपहर के समय, भोजन के बाद आराम करने के कमरे में पलँग पर लेटे हुए थे। इतने में, मन्दिर से लौटी हुई शैव्या उस कमरे में आकर उनके पैरों के समीप बैठ गई।

"शैव्या! आज तुम ऐसा क्यों करती हो? फूलों की माला की शोभा देवता के गले में होती है, और मणि की शोभा राजा के मुकुट में ही। अयोध्या का राजमहल तुम्हारे समान, तीनों भुवनों की सुन्दरियों से भी सुन्दर, स्त्रीरूपी फूल से सुगन्धित है। शास्त्र में कहा है कि साध्वी स्त्री ही स्वामी के हृदय की देवी है। तुम मेरे उस अधिकार को क्यों छीनना चाहती हो? मैंने तीनों लोकों को ढूँढ़कर जो रत्न पाया है वह मेरा रत्न आज अनुचित स्थान पर क्यों पड़ा है? शैव्या! तुम मेरी कामना के लिए कौस्तुभमणि हो, तुम धूप में तपे हुए स्वामी के लिए शीतल चन्दन हो।" यह कहकर राजा ने प्यार से रानी को, दोनों हाथ पकड़कर, छाती की ओर खींचा।

शैव्या तनिक सिटपिटाकर बोली---नाथ! आपके आदर और प्रेम से मैं बड़भागिनी हूँ, किन्तु, स्वामी! नारी का नारीत्व स्वामी की छाती में नहीं मिलता; वह तो स्वामी के चरणों में है! इतने दिनों तक मैंने अपनी उस साधना के स्थान को नहीं पाया था। आज देवी के मन्दिर में आचार्यजी से यह उपदेश पाया है। नाथ! स्वामी के पास स्त्री का जो यह श्रेष्ठ अधिकार है उसको मुझसे न छीनिए।

राजा---प्यारी! आज तुमको नये रूप में देख रहा हूँ। तुम्हारी वह टेढ़ी चितवन आज मानो जगत् के उदार प्रेम से सीधी हो गई है, मानो तुम आज दोनों हाथों से कल्याण और पवित्रता लेकर जगत् में