पृष्ठ:आदर्श महिला.djvu/१८०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आख्यान ]
१६३
दमयन्ती

बाहुक---निषधराज नल के यहाँ पहले सारथि थे; उनका नाम वार्ष्णेय है। नल जब जुए में सब कुछ हार गये तब उनकी चतुर रानी ने अपने प्राण समान प्यारे बेटे और बेटी को इनके साथ विदर्भ भेज दिया। फिर इनको ऋतुपर्ण के यहाँ सारथि की जगह मिल गई।

केशिनी---आप जानते हैं कि आजकल नल कहाँ हैं? आपने अपने साथी वार्ष्णेय से राजा नल के विषय में तो कुछ नहीं सुना है?

बाहुक--भद्रे! मैं नल का कुछ हाल नहीं जानता। शायद, वे आजकल वेष बदलकर किसी गुप्त मतलब को साधने की धुन में हैं। मैं समझता हूँ कि मेरे साथी वार्ष्णेय भी नल के बारे में इससे अधिक कुछ नहीं जानते।

"महाशय! राजकुमारी दमयन्ती पति के विरह में, सन्ध्या समय की कमलिनी की तरह, कुम्हलाकर दिन काट रही है। पति के वियोग से व्याकुल दमयन्ती ने लापता महाराज नल को ढूँढ़ने के लिए एक पद्य देकर देश-देश में दूत भेजे थे। उन दूतों में से, पर्णाद नामक ब्राह्मण ने ऋतुपर्ण की राजधानी में एक सारथि से उस कविता का उत्तर पाया। वह क्या आपही का लिखा हुआ है?" केशिनी के मुँह से दनयन्ती की हालत सुनकर छिपे हुए वेष में महाराज नल बहुत दु:खित हुए। उनकी आँखों में आँसू भर आये।

अचरज से बाहुक के अकचकाकर चुप हो रहने और उसकी खेद से डबडबाई हुई आँखें देखकर केशिनी सोचती हुई राज-महल में लौटी।

केशिनी के मुँह से ऋतुपर्ण के वेष वदते हुए सारथि की बात सुनकर दमयन्ती को सन्देह हुआ कि वही नल हैं। उसके हृदय में शोक उमड़ आया। उसने अपने को सँभालकर कहा--केशिनी! तुम एक बार और उस सारथि के पास जाओ। उस आदमी का कोई