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आख्यान ]
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दमयन्ती

तरह के भयानक जन्तुओं से भरे हुए घने वन में, दमयन्ती को अकेली छोड़कर कैसे जाऊँ? एक बार उन्होंने सोचा, नहीं जाऊँगा। फिर सोचा नहीं, ऐसी असहाय अवस्था में दमयन्ती को छोड़ जाने के सिवा भाग्य के साथ लड़ाई करने का और कोई उपाय नहीं है। इसलिए दमयन्ती को छोड़कर जाना ही पड़ेगा। फिर सोचा---यह बेचारी मेरे विरह में चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा देखेगी और मेरी प्यारी भूखों मरकर या फाँसी लगाकर प्राण अवश्य ही तज देगी। मुझे राजपाट से कुछ काम नहीं। देवी के समान यह स्त्री ही मेरा सर्वस्व है। इसको छोड़कर मैं इन्द्रासन भी नहीं चाहता। मेरे लिए तो यही पारस पत्थर है। मेरी दरिद्रता के अँधेरे में ऐश्वर्य का प्रकाश दमयन्ती से अवश्य ही चमक उठेगा। हृदय! शान्त हो; सारी दुनिया एक तरफ़ और अकेली दमयन्ती एक तरफ़। दमयन्ती को नहीं छोड़ सकूँगा।

आशा की सन्तोष देनेवाली एक शक्ति अचानक फिर जाग उठी मानो कोई वाणी हृदय में लगातार गूँजने लगी कि 'सामने तुम्हारा भयंकर कर्तव्य है, पत्नी के प्रेम में फँसकर अपने कर्तव्य को मत भूलो। तुम राजा हो, तुम्हारे लिए हज़ारों प्राणी रोते हैं। एक आदमी को रुलाई के पीछे हज़ारों आदमियों की रुलाई को बिसारना राजनीति नहीं।' नल ने सोचा कि मेरी सन्तान-समान प्रजा दुष्ट भाई के अत्याचार से दुखी होकर ज़रूर कलपती होगी; यदि ऐसा न होता तो मेरे चित्त में आज ऐसा भाव उठता ही क्यो? यह सोचकर नल उठ बैठे। उन्होंने हाथ जोड़कर पत्नी को सम्बोधन करते हुए मन ही मन कहा---"देवी! मेरा अपराध न मानना। कठिन कर्तव्य की पुकार से ही मैं तुमको छोड़ता हूँ। हे धर्म! तुम मेरी दमयन्ती की रक्षा करना। हे वन-देवी! मैं तुम्हारी पवित्र गोद में अपनी प्यारी प्राण-सम्पत्ति को रक्खे जाता हूँ; दरिद्र की इस थाती को हिफ़ाज़त से