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आदर्श महिला

राज-काज में लगे रहने पर भी जनक धर्मशास्त्र की चर्चा करते थे। उनका दरबार केवल विचार-कार्य और प्रजा की नालिश-फ़र्याद फैसला करने में ही अपने कर्तव्य की समाप्ति नहीं समझता था। राजा जनक की धर्म-पिपासा मिटाने के लिए बहुतसे शास्त्र-ज्ञानी ऋषि सभासदरूप से राज-दरबार की शोभा बढ़ाते थे। उनका दरबार एक ओर विचारालय और दूसरी ओर धर्म-मन्दिर के समान समझा जाता था। उस दरबार में बहुतसे ऋषि-मुनि आकर राजा जनक के साथ धर्म-चर्चा और ब्रह्म-मीमांसा करने में पवित्र आनन्द का अनुभव करते थे।

सीता राजर्षि जनक को लड़की थी। एक बार राजर्षि जनक ने कुरुक्षेत्र में आकर कुरु-जांगल में एक यज्ञ का अनुष्ठान किया। पहले, राजा लोग यज्ञ-भूमि को हल से इस कारण जोतते थे कि यज्ञानल में पृथ्वी के भीतर के दूषित पदार्थ आदि जलकर यज्ञाग्नि की पवित्रता को कहीं नष्ट न कर दें। इसलिए राजा जनक सोने के हल से वहाँ की ज़मीन जोतने लगे। अचानक हल के सामने एक बहुत सुन्दर कन्या दीख पड़ी। उस समय हल जोतने से निकली हुई कन्या पर फूलों की वर्षा होने लगी। इस असम्भव घटना को देखकर राजर्षि जनक विस्मय से सोच ही रहे थे, इतने में आकाश-वाणी हुई-'हे राजा! तुम इस कन्या को लेकर बेटी की तरह पालो-पोसो। इस अपूर्व सुन्दरी कन्या से तुम्हारा मङ्गल होगा; इससे जगत् का विशेष कल्याण होगा; इससे तुम्हारा कुछ विन्न नहीं होगा। तुम इस कन्या-रत्न को देवता का प्रसाद-अपने भविष्य-मङ्गल की पूर्व-सूचना-समझना!' राजा जनक ने बड़े आदर से उस कन्या को लिया और हल से उत्पन्न हुई कन्या का नाम सीता रक्खा। (अद्भुत रामायण, आठवाँ सर्ग)

राजर्षि जनक के स्नेह से वह कुमारी द्यौज के चन्द्रमा की तरह