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[ दूसरा
आदर्श महिला

सावित्री ने सोचा कि सब तो हुआ। देवता के वर से पिता के वंश का और ससुर के वंश का सब अभाव तो दूर हो गया, किन्तु मेरे हृदय का अभाव तो ज्यों का त्यों बना है! हृदय का आसन तो सूना ही पड़ा है। यह सोचकर वह फिर यमराज के पीछे-पीछे जाने लगी। सावित्री को पीछे-पीछे आते देखकर यमराज ने उसकी एकनिष्टा पर बहुत प्रसन्न होकर कहा---सावित्री! तुम्हारी सब कामनाएँ तो पूरी हो गई। अब क्यों कष्ट उठाती हो? लौट जाओ।

सावित्री ने कहा---देवता! मेरे हृदय का आसन तो सूना ही पड़ा है। इस आसन पर जिस देवता को बिठाया था, मेरा वह देवता तो मर गया। हे कृपानिधान! अमृत बरसाकर मेरे उस जीवन-देवता को फिर से जिला दीजिए।

यमराज ने कहा---बेटी! जीवन का बुझा हुआ दीपक दुबारा नहीं जलता। सूखा हुआ फूल फिर नहीं खिलता। भाग्य से तुम्हारा स्वामी अब इस पृथिवी पर फिर नहीं जीएगा। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम सत्यवान के जीवन के सिवा और एक वर माँगो।

सावित्री ने कहा---देव! पतिव्रता बनी रहकर मैं सौ पुत्रों की माता होऊँ।

यमराज ने कहा--तथास्तु। अब तुम वशिष्ठाश्रम को लौट जाओ। बेटी! शोक मत करना। अब तुमको किसी बात की कमी नहीं रह गई।

सावित्री ने कहा--देव! कामना का विनाश हो जाने पर भी तो वह बनी ही रहती है। वर्षा की धारा से धरती के शीतल हो जाने पर भी, बिना समय आये, बीज में अंकुर नहीं निकलता। मैं भविष्य में सौ पुत्रों की माता हूँगी, किन्तु मेरे स्वामी तो आपके हाथ में हैं।