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[ दूसरा
आदर्श महिला

पीछे-पीछे चली आ रही है तब उन्होंने कहा---सावित्री! अब क्यों वृथा दौड़ती हो? विधाता की मर्जी से सभी अपना-अपना कर्म भोगते हैं। सत्यवान की उम्र पूरी हो गई, अब उसके प्राण पर मेरा अधिकार है। अब इस प्राण पर तुम मोह क्यों करती हो? जाओ, घर लौट जाओ। अपने काम में लगो। इस जीवन के बाद तुम अपने पति से फिर मिलोगी।

सावित्री ने कहा---धर्मराज! आप मनुष्य के हृदय को नहीं समझ सकते। आप लोगों ने मनुष्य के जीवन के साथ माया को मिला दिया है। मैं पति की ममता को कैसे त्याग दूँ?

धर्मराज ने कहा---हे भली बात कहनेवाली! मैं तुम्हारी बात से सन्तुष्ट हुआ हूँ। तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर और कोई वर माँगों।

सावित्री ने पिछली रात को उस हंस-वाहिनी की ढाढ़स-युक्त बात का ध्यान किया। उसने सोचा कि देवी की आज्ञा सफल होने की शायद यह पूर्व-सूचना हो; नहीं तो देह-धारी जीव को मृत्यु देवता का प्रत्यक्ष दर्शन कैसे हो सकता है? केवल इतना ही नहीं, किन्तु विनय पर कान न देनेवाले मृत्यु देवता आज वरदान देनेवाले की मूर्त्ति में मेरे सामने खड़े हैं! सावित्री ने रातवाली बात पर विश्वास करके कहा---देवता! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा वरदान दीजिए जिससे मेरे ससुर के आँखें हो जायँ।

"तथास्तु"---ऐसा ही हो, कहकर धर्मराज अपनी पुरी की ओर बढ़े।

कुछ दूर आगे बढ़ने के बाद यमराज ने पीछे फिरकर देखा कि सावित्री पीछे-पीछे चली आ रही है।