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आख्यान ]
१०१
सावित्री

वह व्रत के अन्त में जो निराश होकर अग्नि में आहुति देगी तो तुम्हारा यह जगत् भस्म हो जायगा। सती का तेज बड़ा भयंकर है। उस पति का मङ्गल चाहनेवाली की अभिलाषा किस तरह पूरी होगी?

ब्रह्मा ने कहा---"देवी! मद्रराज के दामाद की उम्र अब केवल एक दिन की और रह गई है। सत्यवान अपने ही कर्म के फल से इतनी थोड़ी उम्र लेकर उपजा है। देवी! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि कर्म के फल से ही भाग्य छिप जाता है। सावित्री के कर्म के फल से सत्यवान के भाग्य की गति पलट गई है। अब सत्यवान की उम्र खूब बड़ी होगी। तुम राजकुमारी की कामना पूरी करो।" यह सुनकर ब्रह्माणी ने प्रसन्न हो पृथिवी पर आने के लिए ब्रह्मा से आज्ञा माँगी। ब्रह्मा ने कहा---"देवी! यह देखो, रात का पिछला पहर है। पृथिवी में, पूर्व दिशा में पौ फटने लगी है, सुनहली उषा की किरणें झलमला रही हैं, ब्राह्मण लोग तुम्हारा ध्यान कर रहे हैं। यह सुनो देवी! हज़ारों कण्ठों से आवाज़ निकल रही है---

"रक्तवर्णा द्विभुजां अक्षसूत्रकमण्डलुकराम्।
हंसासनसमारूढां ब्रह्माणी ब्रह्मदैवतां ऋग्वेदादाहृताम्---"

वेदमाता सावित्री हंस पर चढ़कर सूर्य-मण्डल को गईं।

व्रत का अन्त होने में अब सिर्फ़ आधे पहर की देर है। अभी तक कामना पूरी नहीं हुई। सावित्री निराश-सी हो गई। आँसुओं की धारा से उसका कमल-सा मुँह भीगने लगा। उसने गिड़गिड़ाकर कहा---"देवी ब्रह्माणी! माता के मुँह से सुना है कि मैं तुम्हारे ही आशीर्वाद से जनमी हूँ। मैं इस मृत्युलोक में क्या ऐसी अधम हूँ कि इतनी कृच्छ-साधना करने पर भी तुम्हारा दर्शन नहीं पाया? मा! इस अभागिनी बेटी को इतनी यातना क्यों? जो मैं तुम्हारी दया