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आख्यान ]
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सावित्री

वसन्त है। वसन्त की ऐसी सुन्दर चटकीली रात में एक दिन सत्यवान अचानक नींद से उठ बैठा। उसने देखा कि घर के एक छेद से चाँदनी भीतर घुसकर सावित्री के मुँह पर खेल रही है। सत्यवान चाँदनी से चमकते हुए सावित्री के मुख की शोभा को एकटक देखने लगा। उसके हृदय में आनन्द का तूफ़ान उठने लगा। सत्यवान की एक प्रेम-घटना से सावित्री की नींद टूट गई। उसने देखा कि स्वामी एकटक मेरे मुँह की ओर देख रहे हैं। तुरन्त की जागी हुई प्रियतमा की अलसाई हुई आँखों में सत्यवान किसी नये लोक के रूप को देखकर मगन हो गया। वसन्ती रात की चाँदनी में निर्जन तपोवन की मलय वायु से शीतल कोठरी में नये दम्पती आज एक-दूसरे के प्रेम में डूबे हुए हैं।

सत्यवान ने, बड़े प्यार से सावित्री की ठुड्डी को हाथ से छूकर, कहा---देखो सावित्री! चाँदनी से वन कैसा सुहावना लगता है। उससे भी बढ़कर सुहावनी हो गई है इस दीन की कुटी, जिसमें हे आनन्दमयी! तुम आनन्द की बाढ़ ले आई हो।

सावित्री ने, अपनी अलसाई हुई देह को सत्यवान की देह से सटाकर, कहा---शायद, इसी से आज, आप आनन्द की धारा में बहते-बहते अचानक किनारा पा गये हैं।

सत्यवान इस दिल्लगी से बहुत प्रसन्न होकर बोला--"प्राणप्यारी! तुमको पाकर मैं धन्य हो गया हूँ--तृप्त हो गया हूँ। देवी! तुम ममता की साक्षात् मूर्ति हो। तुम्हारे हृदय की सुन्दरता ने मेरी सब कमी दूर कर दी है। तुम्हें पाने से, मेरे हृदय में, एक नया बल आ गया है।" सावित्री ने बीच ही में रोककर कहा--नाथ! तपस्वीजी की, रात की, क्या यही उपासना है? क्या आप पत्नी का गुण गाकर हृदय के देवता को जगा रहे हैं?