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आख्यान
८९
सावित्री

चुका हूँ कि मेरी लड़की ऐश्वर्य में रहकर भी योगिनी है। वह जान-बूझकर राजसी सुखों से दूर रहना चाहती है। और आपका अभाग कैसे है? संसारी धन से क्या हृदय का धन क़ीमती नहीं है! जब आप का हृदय ब्रह्मानन्द से भरा हुआ है तब आपको धन की क्या कमी है? हे ब्रह्मज्ञानी! भ्रम के गाढ़े अँधेरे में बिना ठौरवाले मुझको भटकाइए मत। आपका हृदय देवता का सिंहासन है और मेरा हृदय कामना का छोटा-सा कोठा। फिर भी आपसे निवेदन है कि बुरे स्थान में उत्पन्न होने से क्या लोग मणि का अनादर करते हैं? या कीचड़ में उगने के कारण कोई कमल से घृणा करता है? मेरी सुशील कन्या आपकी योग्य पुत्र-वधू होगी और हे राजर्षि! वह आपके भाग्यवान पुत्र सत्यवान को चाहती भी है।

यह सुनकर राजर्षि द्युमत्सेन के हृदय में आशा की नई किरणें जगमगा उठी। मानो वे उस भावी पुत्र-वधू की देवी जैसी मूत्ति को प्रेम की दृष्टि से देखने लगे। मद्रराज की अनोखी दीनता और शिष्टाचार से खूब सन्तुष्ट होकर राजर्षि अब नाहीं न कर सके।

इस प्रकार आपस की बातचीत हो लेने पर राजा अश्वपति ने कहा---राजर्षि! मैं और एक बात कहना भूल गया। मेरी इच्छा है कि मेरी आदर्श लड़की का यह आदर्श मिलन इस पवित्र पुण्य-तीर्थ तपोवन में ही हो, क्योंकि गङ्गा की धारा आप ही जाकर महासागर को आत्मसमर्पण करती है।

राजा धुमत्सेन ने बहुत सोच-विचारकर सब मंजूर कर लिया।

[७]

राजा अश्वपति सावित्री के साथ सत्यवान का ब्याह कर देने के लिए वशिष्टाश्रम में गये। राजमहल में व्याह होने पर जैसी धूमधाम होती वैसी धूमधाम से तो राजा अश्वपति, मुनि के आश्रम में, शान्ति-