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[दूसरा
आदर्श महिला

हो सकती। गुण में भी वह सरस्वती के समान है। मद्रराज! राज- कुमारी अच्छी तरह से तो है न?

यह सुनकर राजा ने हर्षपूर्वक कहा---आप लोगों की कृपा से राज्य में सब कुशल-मङ्गल है। मेरी लड़की भी भली-चङ्गी है।

इस प्रकार दोनों में बहुतसी बातें हुई। अन्त में राजा अश्वपति ने कहा---राजर्षि! कृपा कर मेरी उस कन्या को आप पुत्र-वधू रूप से ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए।

राजषि द्युमत्सेन ने कहा---मद्रराज! यह शुभ सम्बन्ध है और सब तरह से श्रेष्ठ है। किन्तु एक बात मैं बड़ी बेमेल देखता हूँ। न तो मेरे पास अब राज्य है और न धन। राजसी सुखों में पली हुई वह मनोहर बालिका वनवासिनी कैसे होगी?

राजा ने कहा---आपको उसकी चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी। इस थोड़ीसी उम्र में ही सावित्री ने जो कुछ सीखा है उसकी तुलना नहीं हो सकती। सुख-दुःख उसके आगे एक से ही हैं। वह दोनों को विधाता की रचना समझती है। मेरी लड़की निवृत्ति की मूर्ति है। राजर्षि! उसके शास्त्र-ज्ञान को देखकर मुझे स्वयं अचरज होता है। राज-महल में ऐश्वर्य के बीच पलकर भी मेरी लड़की व्रत करनेवाली योगिनी है। उसकी इस योग-साधना की जड़ में कौनसा शुभ उद्देश्य है सो हम थोड़ी अक्ल़वालों की समझ में नहीं आता।

राजर्षि ने कहा---महाराज! मैं एक ही दिन में सावित्री के गुणों को पहचान गया हूँ। मेरी स्त्री को सावित्री का रूप और गुण बहुत पसन्द है। किन्तु उस कोमल स्वभाववाली सरला बालिका के भविष्य-जीवन की याद करके मैं सम्मति नहीं दे सकता। राजन्! खिले हुए फूल में काँटा छेदना कौन चाहेगा?

यह सुनकर अश्वपति ने कहा---राजर्षि! मैं तो पहले ही कह