ग्यारह
फ्रांस के एक नगर में एक मध्यम श्रेणी के जौहरी परिवार में एक प्रतिभाशाली बालिका ने जन्म लिया। बालिका के पिता एक महत्त्वाकांक्षी उद्योगी पुरुष थे और थोड़ी पूंजी से ही अपनी उन्नति करते जाते थे। इन्हीं पिता की देखरेख में बालिका का शैशव-काल बीता। पिता ने पुत्री को उच्च से उच्च शिक्षा देने का प्रबन्ध कर दिया। उनके और कोई सन्तति नहीं थी, अतएव माँ ने भी अपना सारा बालिका के लालन-पालन में ही लगा दिया था, परन्तु अपने प्रेम के कारण कन्या की शिक्षा में उसने किसी प्रकार की त्रुटि न आने दी। उसने स्वयं बालिका को वीरता और धैर्य के भावों से बचपन ही में परिपक्व कर दिया। शैशव-काल में ही बालिका में भावी उन्नति के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे थे। अध्ययन की ओर उसकी विशेष रुचि थी। अवकाश मिलने पर भी वह अपनी हमजोलियों में जाकर खेल-कूद न करती, वरन् एकान्त में बैठकर गम्भीरतापूर्वक प्रत्येक बात पर विचार किया करती थी। किसी एक वस्तु की जानकारी से सन्तुष्ट होकर बैठ रहना उसके लिए कठिन था। उसका अध्ययन-क्षत्र विस्तृत था। यौवन के आगम-काल में ही उसको धर्म, इतिहास, दर्शन, संगीत, चित्रकारी, नृत्य, विज्ञान, रसायन शास्त्र आदि का ज्ञान हो गया था। दूसरे देशों की भाषाओं को भी वह बड़ी रुचि से पढ़ती थी। रूसो, बोल्टेयर, मोन्टिस्कयू, प्लूटार्क जैसे प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकें बड़े ध्यान से पढ़ती थी। उसने अपने पिता का व्यवसाय भी सीख लिया। मूर्तियों में खुदाई का काम करके वह उन्हें अपने बाबा और दादी को दिया करती थी। वे दोनों वृद्ध प्राणी पौत्री की उन्नति को देखकर फूले न समाते थे और उसे बढ़ावा देने के लिए आभूषण दिया करते थे। घर का काम करने में भी उसे किसी प्रकार की हिच-किचाहट नहीं थी। बाजार से सौदा मोल ले आना, चौके में बैठकर शाक-भाजी तैयार करना, माँ की सहायता करना तो उसके नित्य के काम हो गए थे। संलग्नता और परिश्रम का उसके जीवन पर बड़ा गहरा प्रभाव
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