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राजा-रानी, दोनों बालक और राजा की बहन उस कारागार में रहने लगे। इस बन्दी-जीवन में पति के साथ रहने से रानी को विशेष दुःख नहीं हुआ, पर दो ही दिन में राज-परिवार के सब नौकर वहां से हटा दिए गए। जेल के कर्मचारियों का व्यवहार बड़ा कठोर और रूखा था। कुछ दिनों बाद रानी को राजसत्ता का अन्त होने की सूचना मिली, उसी दिन उनसे राज्य सम्बन्धी वस्त्र, आभूषणादि सब छीन लिए गए उनके पहनने के लिए वस्त्रों तक का कुछ प्रबन्ध न किया गया। राजमहिषि राजा और बालकों के फटे कपड़ों को सीकर काम चलाने लगी। रानी का जीवन बड़ा दुःखपूर्ण हो गया। कहाँ एक राजमहिषी और कहाँ एक बन्दिनी। एक मास बाद लुई को वहाँ से हटाकर रानी से पृथक् रखा गया। रानी को अब अपना जीवन सचमुच बड़ा भार-रूप प्रतीत होने लगा। वह दिन-भर उदास रहती और दोनों बच्चों को गले लगाकर रोया करती। परन्तु अपनी ननद एलिजाबेथ की सान्त्वनाओं से उसका दुःख कुछ कम हो जाता। अपने भाई और भावज को सुखी रखने के लिए एलिजाबेथ ने अपने सुख को ठुकरा दिया था। उसे अपने शरीर और आराम की जरा भी परवाह नहीं थी।

मुसीबत का पहाड़ एक साथ ही टूटता है। कुछ ही दिनों में शासन की आज्ञा से राजकुमार को भी रानी की गोद से छीन लिया गया। उसको राजा के पास रहने की आज्ञा हुई। शासकगण समझते थे कि रानी इस राजकुमार को भी क्रान्ति का शत्नु बना देगी। हृदय पर पत्थर रखकर रानी ने यह भी दुःख सहा। इन सब प्राणियों को केवल भोजन के समय एकत्रित होने की आज्ञा मिल गई थी, परन्तु उनकी चौकसी पूरी-पूरी होती थी। उनकी रोटियों तक को देखा जाता था कि कहीं इसमें कोई षड्यन्त्र तो नहीं भरा है। वे लोग धीरे-धीरे बात नहीं कर सकते थे, फ्रेंच के अतिरिक्त दूसरी भाषा में बोलना भी उनके लिए निषिद्ध था।

इसी बीच में राजभवन की खोज होने पर वहाँ कुछ ऐसे गुप्त कागजपत्र मिले, जिनसे राजा का विदेशी राजाओं औरसरदारों से षड्यन्त्र करना सिद्ध होता था। परिषद् ने लुई पर देश के प्रति विश्वासघात का दोष लगाया। राजा पर अभियोग चलाया गया। ११ दिसम्बर, १७९२ को दोषी पाकर उसको मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दी गई।

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