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रानी को उस स्थिति में रहना बड़ा कष्टप्रद प्रतीत होने लगा। वह वहाँ से निकल भागने का विचार करने लगी।

इन्हीं दिनों फ्रांस की राज्य-परिषद् में शासन-विधान-सम्बन्धी बहुत से परिवर्तन हो गए थे, जिसके कारण राज-सत्ता के समर्थक बहुत से कुलीन मनुष्य फ्रांस की सीमा से बाहर चले गये थे। वे विदेशी राज्यों की सहायता से फ्रांस में राजसत्ता को निरापद करना चाहते थे। साम्राज्ञी गुप्त रीति से उनके कुचक्र में सम्मिलित थी। उनके परामर्श और सहायता से उसने राजभवन छोड़ने का प्रबन्ध कर लिया। एक दिन सुयोग देखकर प्रहरियों की आँख में धूल झोंककर राजवंश ने सीमाप्रान्त की ओर प्रस्थान कर दिया। वहाँ उनकी सहायता के लिए एक सेनानायक २५००० सैनिकों के साथ उपस्थित था, परन्तु यह सबके सब मार्ग में ही पकड़े गए। वनिस गाँव के पोस्टमास्टर के पुत्र ने उन्हें पहचान लिया। रानी ने हाथ जोड़े, प्रार्थना की, गिड़गिड़ाई और रोई भी, परन्तु उसके आँसुओं का कुछ फल न निकला। सबके सब पेरिस लाए गये और कड़े पहरे में बन्द कर दिए गए। राजा की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो गई। उसकी इच्छा आत्मघात करने की होती थी। दस दिन तक निरन्तर उसने रानी से कोई बात न की। जब रानी से न रहा गया तो वह जाकर पति के चरणों पर गिर पड़ी और दोनों बच्चों को उसकी गोद में बैठाकर कहने लगी-"भाग्य के विरुद्ध युद्ध जारी रखने के लिए हमें धैर्य धारण करना ही होगा। यदि हमारा अन्त अवश्यंभावी है तो हम उसे रोक नहीं सकते, परन्तु मरने की कला हम अच्छी तरह जानते हैं। मरना ही है तो शासक की भांति मरें। बिना विरोध किए, बिना प्रति-शोध लिए ही हाथ पर हाथ रखकर बैठना उचित नहीं है। हमें अपने स्वत्व के लिए झगड़ते रहना चाहिए।"

रानी के हृदय में वीरता थी। वह झगड़ना जानती थी, परन्तु शासन करना उसे आता न था।

राजवंश के पेरिस-परित्याग से पूर्व बहुत से मनुष्य राजा के पक्ष में थे, परन्तु उनके इस प्रकार जाने से उनका पक्ष निर्बल हो गया। जनता सम्राट को पदच्युत करने की बात सोचने लगी। राज्य-परिषद् ने राजा के बहुत से अधिकार छीन लिए। उधर आस्ट्रिया और प्रशा के राजाओं ने फ्रांस के

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