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करते थे, जितना कि पेशवा करता था; और मुसलमान एवं हिन्दू-दोनों अहिल्याबाई के चिरजीवी होने और उसकी सौख्य—वृद्धि की ईश्वर से प्रार्थना करते थे।

६० वर्ष की अवस्था में ३० वर्ष तक राज्य करने के बाद सन् १७९५ में महारानी अहिल्याबाई की मृत्यु हुई। कड़े उपवास और व्रतों ने उसके शरीर को दुर्बल बना दिया था।

अहिल्याबाई मध्यम कद की दुबली-पतली स्त्री थी। रंग उसका गहरा गेहुआँ था और जीवन की अन्तिम घड़ी तक उसके चेहरे से शान्ति और भलाई झलकती थी। अहिल्याबाई बड़ी हँसमुख थी, किन्तु लोगों के जुल्म और ज्यादतियों से जब उसे क्रोध आता था तो लोग काँपने लगते थे। धार्मिक ग्रन्थों से उसे विशेष प्रेम था। वह उन्हें पढ़ और समझ लेती थी। अहिल्याबाई राज्य-प्रबन्ध में अत्यन्त चतुर और दक्ष थी। अहिल्याबाई जब बीस वर्ष की भी न थी, उसके पति युद्ध में मारे गये। पुत्र भी उसका केवल नौ महीने राज्य करके मर गया। पति-वियोग और अपने पुत्र की असामयिक मृत्यु का उसके हृदय पर बड़ा गहरा असर पड़ा। पति-मृत्यु के बाद उसने कभी रंगीन कपड़े नहीं पहने; और सिवाय एक हीरों की माला के कोई दूसरा आभूषण भी नहीं पहना। खुशामद से उसे सख्त नफरत थी।

एक ब्राह्मण कवि उसकी प्रशंसा में एक पुस्तक लिखकर लाया। अहिल्याबाई ने उसे बड़े धैर्य के साथ सुना। जब वह समाप्त कर चुका तो कहने लगी—“मैं तो एक पापी और दुर्बल स्त्री हूँ। मैं इस प्रशंसा की पात्र नहीं।"

यह कहकर कवि की पुस्तक नर्मदा नदी में फिकवा दी गई।

उसमें अभिमान न था। वह अपने धर्म की कट्टर विश्वासी थी, किन्तु उसमें अनुदारता न थी। अपनी प्रजा के उन लोगों के साथ, जिनके धार्मिक विश्वास उससे भिन्न थे, अहिल्याबाई का व्यवहार विशेष अनुग्रह और उदारता का होता था।अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने मालवा पर अधिकार कर लिया।

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