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दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के वजीर आसफजाह ने वजारत से इस्तीफा देकर दक्षिण में जा, हैदराबाद को अपनी राजधानी बनाकर एक नया राज्य स्थापित किया और १० वर्ष तक मराठों से लड़कर अपने राज्य को दृढ़ कर लिया। धीरे-धीरे दक्षिण में तीन शक्तियाँ प्रबल हो गईं। एक निजाम, दूसरी पेशवा और तीसरी हैदरअली।

अंग्रेजी शक्ति ने इन तीनों को न मिलने देने में ही कुशल समझी। निजाम ने अंग्रेजी शान्ति के आधीन होकर बार-बार हैदरअली से विश्वासघात किया। ज्योंही टीपू की समाप्ति हुई, अंग्रेजी-शक्ति निजाम के पीछे लगी। पहले गुण्डर का इलाका उससे ले लिया गया।

इसके बाद एक गहरी चाल यह खेली गई कि वजीर से लेकर छोटे-छोटे अमीरों तक को रिश्वतें देकर इस बात पर राजी कर लिया गया कि नवाब की सब सेना, जो फ्रांसीसियों के अधीन थी, टुकड़े-टुकड़े करके बर्खास्त कर दी जाय और कम्पनी की सबसीडियरी सेना चुपके से हैदराबाद आकर उसका स्थान ग्रहण कर ले। इसकी नवाब को कानों-कान खबर नहीं हो।

वजीर यद्यपि सहमत हो गया था, घूस भी खा चुका था, परन्तु ऐसा भयानक काम करते झिझकता था। किन्तु अंग्रेजों ने सेना के भीतर ही जाल फैला दिये थे। फलतः निजाम की सेनाएँ विद्रोह कर बैठीं; क्योंकि उन्हें कई मास का वेतन नहीं मिला था। उचित अवसर देखकर कम्पनी की सेना ने हैदराबाद को घेर लिया और निजाम की सेना को बर्खास्त करके अपना आधिपत्य कर लिया।

शिवाजी की मृत्यु के ८० वर्ष बाद मरहठों की सत्ता बहुत बढ़ चुकी थी और मुगल साम्राज्य की शक्ति घट रही थी। एक बार तो समस्त भारत में मरहठों का प्रभुत्व छा चुका था। मरहठों में पेशवा सर्वोपरि शासक था, परन्तु धीरे-धीरे गायकवाड़, भोंसले, होल्कर और सिंधिया अपनी पृथक् सत्ता स्थापित करने लगे। उन्होंने पेशवा के स्वामित्व से स्वयं को पृथक् कर लिया।

वारेन हेस्टिग्स बंगाल और अवध को हस्तगत करने के साथ ही मराठा-मण्डल में भी फूट डालकर मध्य भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रभुत्व

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