यह पृष्ठ प्रमाणित है।


भी अंग्रेजों को हरा दिया। इसी समय यूरोप में फ्रांस और इंगलिस्तान के बीच संधि हो गई, जिसमें एक बात यह तय हुई कि मद्रास फिर से अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाय। इस प्रकार अकस्मात् करनाटक से अंग्रेजों को निकाल देने की डूप्ले की आशा को एक जबरदस्त धक्का पहुँचा, जिससे फ्रांसीसियों की बरसों की मेहनत पर पानी फिर गया। किन्तु डूप्ले का हौसला इतनी जल्दी टूटने वाला न था। फ्रांसीसी और अंग्रेजी कम्पनियों में प्रतिस्पर्धी बराबर जारी रही। ये दोनों कम्पनियाँ इस देश में अपनी-अपनी सेनाएँ रखती थीं और जहाँ कहीं किसी दो भारतीय नरेशों में लड़ाई होती थी तो एक एक का और दूसरा दूसरे का पक्ष लेकर लड़ाई में शामिल हो जाता था। भारतीय नरेशों की सहायता के बहाने इनका उद्देश्य अपने यूरोपियन प्रतिस्पर्धा को समाप्त करना होता था।

दक्षिण भारत की राजनैतिक अवस्था इस समय अत्यन्त बिगड़ी हुई थी। मुगल-सम्राट की ओर से नाजिरजंग दक्षिण का सूबेदार था। नाजिरजंग का भतीजा मुजफ्फरजंग अपने चचा को मसनद से उतारकर स्वयं सूबेदार बनना चाहता था, इसलिए नाजिरजंग ने अपने भतीजे मुजफ्फरजंग को कैद कर रखा था। उधर अनवरुद्दीन करनाटक का नवाब था, किन्तु उससे पहले नवाब दोस्तअली खाँ का दामाद चन्दासाहब अनवरुद्दीन को गद्दी से उतारकर खुद करनाटक का नवाब बनना चाहता था। साहूजी तंजोर का राजा था और एक दूसरा उत्तराधिकारी प्रतापसिंह साहूजी को हटाकर तंजोर का राज्य लेना चाहता था। करनाटक का नवाब सूबेदार के अधीन था और तंजोर का राजा नवाब करनाटक का मालगुजार था। इन तीनों शाही घरानों की इस आपसी फूट से अंग्रेज, फ्रांसीसी और मराठे तीनों फायदा उठाने की कोशिशें कर रहे थे। दिल्ली के मुगल-दरबार में इतना बल न रह गया था कि साम्राज्य के एक दूर के कोने में इस तरह के झगड़ों को दबा सके। अंग्रेजों ने नाजिरजंग और अनवरुद्दीन का पक्ष लिया और फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग तथा चन्दासाहब का। सूत्रपात तंजोर से हुआ

सबसे पहले चन्दासाहब ने तंजोर के राजा साहूजी को गद्दी से उतार वहाँ का राज्य अपने अधीन कर लिया। मराठों ने तंजोर पर चढ़ाई रके चन्दासाहब को कैद कर लिया और प्रतापसिंह को वहाँ की गद्दी पर

५८