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करने की भी सलाह दी थी, परन्तु नवाब ने समझा-अलीवर्दी के नाम और इस्लाम धर्म का ख्याल कर समझाने-बुझाने से वह सीधे मार्ग पर आ जायगा। पर मीरजाफर डरकर राजमहल में नहीं गया।

अन्त में आत्माभिमान को छोड़कर नवाब स्वयं पालकी में बैठकर मीरजाफर के घर पहुँचा। मीरजाफर को अब बाहर निकलना पड़ा। उसकी आँखों में शर्म आई। उसने अपने प्यारे मित्र सरदार के मुख से करुणा-जनक धिक्कार सुनी। मीरजाफर ने नवाव के पैर छूकर सव स्वीकार किया। कुरान उठायी और सिर से लगाकर ईश्वर और पैगम्वर की कसम खाकर, उसने अंग्रेजों से सम्बन्ध तोड़कर--नवाब की सेवा धर्मपूर्वक करने की प्रतिज्ञा की।

घर की इस फूट को प्रेमपूर्वक मिटाकर नवाब को सन्तोष हुआ। अब उसने सेना का आह्वान किया। पर बागियों के बहकाने से सेना ने पहले विना वेतन पाये, युद्ध-यात्रा से इनकार कर दिया। नवाब ने वह भी चुकाया। मीरजाफर प्रधान सेनापति बना। यारलतीफखाँ, दुर्लभराय, मीर मदनमोहनलाल और फ्रेंच सिनफ्रे एक-एक विभाग के सेनाध्यक्ष बने।

मीरजाफर ने क्लाइव को, नवाब के साथ जो कसम-धर्म हुआ था--सब लिख भेजा। साथ ही यह भी लिख दिया-- "बढ़े चले आओ, मैं अपने वचनों का वैसा ही पक्का हूँ।"

पर क्लाइव को आगे बढ़ने का साहस नहीं हुआ। वह पाटुली में छावनी डालकर पड़ गया। सामने कोठाया का किला था। यह निश्चय हो चुका था कि सेनाध्यक्ष मीरजाफर कुछ देर बनावटी युद्ध करके पराजय स्वीकार कर लेगा। क्लाइव ने पहले इसी की सचाई जाननी चाही। मेजर कूट २०० गोरे और ३०० काले सिपाही लेकर किले पर चढ़ा। मराठों के समय में गहरी-गहरी लड़ाइयों के कारण भागीरथी और अजम के संगम का यह किला वीरों की लीला-भूमि प्रसिद्ध हो चुका था। परन्तु इस बार फाटक पर युद्ध नहीं हुआ। कुछ देर नवाबी सेना नाटक-सा खेलकर जगह-जगह अपने ही हाथों से आग लगाकर भाग गई। क्लाइव ने विजय-गर्वित की तरह किले पर अधिकार किया। नगर-निवासी प्राण लेकर भागे--अंग्रेजों ने उनका सर्वस्व लूट लिया। केवल चावल ही इतना मिल गया था--जो

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