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और वह इसमें ज़रा-से भी कष्ट का अनुभव करता। यही दुर्दान्त अंग्रेज युवक था, जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव भारत में जमाई, और अंत में आत्मघात करके मरा।

मीरजाफर से संधि पर हस्ताक्षर होने बाकी थे। पर गुप्तचर चारों ओर छूटे हुए थे। वाट्सन साहब बहादुर पर्देदार पालकी में चूंघटवाली स्त्रियों का वेश धर प्रतिष्ठित मुसलमान घराने की स्त्रियों की तरह सीधे मीरजाफर के जनानखाने में पहुँचे, और मीरजाफर ने कुरान सिर पर रख, तथा पुत्र मीरन पर हाथ धर, सन्धि-पत्र पर दस्तखत कर दिये। इस पर भी अंग्रेजों को विश्वास न हुआ, तो उन्होंने जगतसेठ और अमीचन्द को जामिन बनाया। भाग्यविधान से अन्तिम समय मीरजाफर के हाथ कोढ़ से गल गये, और उसके पुत्र मीरन पर अकस्मात् बिजली गिरी थी।

अमीचन्द को धोखा देकर ही अंग्रेज शान्त न रहे, बल्कि वे उसे कलकत्ते में लाकर अपनी मुट्ठी में लाने की जुगत करने लगे। यह काम स्क्वायल के सुपुर्द हुआ। उसने अमीचन्द से कहा-"बातचीत तो समाप्त हो गई। अब दो-ही-चार दिन में लड़ाई छिड़ जायगी। हम तो घोड़े पर चढ़कर उड़न्तू होंगे, तुम बूढ़े हो--क्या करोगे! क्या घोड़े पर भाग सकोगे?"

मूर्ख बनिया घबराकर नवाब से आज्ञा ले, मुर्शिदाबाद भाग गया।

सिराजुद्दौला को मीरजाफर के साथ हुई इस सन्धि का पता चल गया। वाट्सन साहब सावधान हो, घोड़े पर चढ़ हवाखोरी के बहाने भाग गये। नवाब ने अंग्रेजों को अन्तिम पत्र लिखकर अन्त में लिखा--"ईश्वर को धन्यवाद है कि मेरे द्वारा संधि भंग नहीं हुई।"

१२ जून को अंग्रेजों की फौज चली। जिसमें ६५० गोरे, १५० पैदल गोलन्दाज, २१ नाविक, २१०० देशी सिपाही थे। थोड़े पुर्तगीज भी थे। सब मिलाकर कुल ३००० आदमी थे। गोला-बारूद आदि लेकर २०० नावों पर गोरे चले। काले सिपाही पैदल ही गंगा के किनारे-किनारे चले। रास्ते में हुगली, काटोपा, अग्रद्वीप, पलासी की छावनियों में नवाब की काफी फौज पड़ी थी। परन्तु अंग्रेजों ने सबको खरीद लिया था। किसी ने रोक-टोक न की। उधर नवाब ने सब हाल जानकर भी मीरजाफर को उसके अपराधों को क्षमा करके महल में बुला भेजा। लोगों ने उसे गिरफ्तार

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