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जटित पालकी पर अमीर-उमरावों के साथ नगर में होकर जब गाजे-बाजे से मोती-झील को जा रहा था, उस समय रास्ते में स्थित कारागार में बन्द हॉलवेल साहब पर उसकी नजर पड़ी। उसने तत्काल सब बाजे बन्द करवा दिये और पालकी से उतर, पैदल कारागार के द्वार पर जाकर चोबदार को हॉलवेल की हथकड़ी-बेड़ी खुलवाने का हुक्म दिया और हॉलवेल और उसके तीन साथियों को सर्वथा मुक्त कर दिया।


तीन

धीरे-धीरे अंग्रेज फिर कलकत्ते में आकर वाणिज्य करने लगे। पर शीघ्र ही एक दुर्घटना हो गई। एक अंग्रेज सर्जन ने एक निरपराध मुसलमान की हत्या कर डाली। बस, राजा मानिकचन्द की आज्ञा से सब अंग्रेज कलकत्ते से बाहर कर दिये गये। अंग्रेज लोग निरुपाय होकर पालताबन्दर पर इकठ्ठ होने लगे। इस अस्वास्थ्यकर स्थान में अंग्रेजों की बड़ी दुर्दशा हुई। प्रचण्ड गर्मी, तिस पर निराश्रय, और खाद्य पदार्थों का अभाव। जहाज का भण्डार खाली, पास में रुपया नहीं। न कोई बाजार! केवल कुछ- डच फ्रान्सीसी और काले बंगालियों की कृपा से कुछ खाद्य-पदार्थ मिल जाया करते थे।

दुर्दशा के साथ दुर्गति भी उनमें बढ़ गई। किसके दोष से हमारी यह दुर्दशा हुई?--इसी बात को लेकर परस्पर विवाद चला। सब लोग कलकत्ते की कौंसिल को सारा दोष देने लगे। कौंसिल के सब लोग परस्पर एक-दूसरे को दोष देने लगे। घोर वैमनस्य बढ़ा। अन्त में सब यही कहने लगे कि लोभ में आकर कृष्णवल्लभ को जिन्होंने आश्रय दिया, और कम्पनी के नाम से परवाने औरों को बेचकर जिन्होंने बदमाशी की, वे ही इस विपत्ति के मूल कारण हैं।

पाँचवीं अगस्त को मद्रास में भागकर आए हुए अंग्रेजों ने पहुंचकर कलकत्ते की दुर्दशा का हाल सुनाया। सुनकर सबके सिर पर वज्र गिरा। सब हत्-बुद्धि हो गये। एक विचार-कमेटी बैठी। खूब गर्जन-तर्जन हुआ। उन

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