अंग्रेजों का आर्तनाद, सिपाहियों की परस्पर की कलह और सेनापतियों के मतिभ्रम इत्यादि से किले में शासन-शक्ति का सर्वथा लोप हो गया था।
बड़ी कठिनता से रात को दो बजे सामरिक सभा जुड़ी। इसमें छोटे-बड़े सभी थे। बहीखाता समेटकर भाग जाना ही निश्चय हुआ। प्रातःकाल जो भागने को एक गुप्त दरवाजा खोल गया, तो बहुत-से आदमियों ने उतावली से भागकर, किनारे पर आकर कोलाहल मचा दिया और नावों पर बैठने में छीना-झपटी करने लगे। परिणाम बुरा हुआ—नवाबी सेना ने सावधान होकर तीर बरसाने शुरू किये। कितनी नावें उलट गई। किसी तरह कुछ लोग जहाज तक पहुँचे। उस पर गोले बरसाये गये। फिर भी गवर्नर ड्रेक, सेनापति मनचन, कप्तान ग्राण्ट आदि बड़े-बड़े आदमी इस तरह से भाग गये।
अब कलकत्ते के जमींदार हॉलवेल साहब ही मुखिया रह गये। वे क्या करते? अंग्रेज समझते थे कि महामति ड्रेक घबराकर मति-भ्रम होने के कारण भाग गये हैं। शायद, वे विचार कर, सहकारियों को सज्जित करके अपने साथियों की रक्षा के लिये फिर आयें। पर आशा व्यर्थ हुई। ड्रेक साहब न आये। किलेवालों ने लौटने के बहुत संकेत किये-बराबर निवेदन किये। गवर्नर साहब न आये।
अब हारकर हॉलवेल साहब अपने पुराने सहायक अमीचन्द की शरण में गये, जो उन्हींके कैदखाने में बन्दी पड़ा था। अमीचन्द ने उस समय उनकी कुछ भी लानत-मलामत न कर, उनके कातर-क्रन्दन से द्रवीभूत हो नवाब के सेनानायक मानिकचन्द को एक पत्र इस आशय का लिख दिया-"अब नहीं। काफी शिक्षा मिल गई है। नवाब की जो आज्ञा होगी- अंग्रेज वही करेंगे।"
यह पत्र हॉलवेल साहब ने चहारदीवारी पर खड़े होकर बाहर फेंक दिया। पर इसका कोई जवाब नहीं आया। पता नहीं, वह पत्र ठिकाने पहुँचा भी या नहीं। एकाएक किले का पश्चिमी दरवाजा टूट गया, और धुआँधार नवाबी सेना किले में घुस आई। सब अंग्रेज कैद कर लिये गये। किले के फाटक पर नवाबी पताका खड़ी कर दी गई।
तीसरे पहर नवाब ने किले में पधारकर दरबार किया। अमीचन्द
१९