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की ओर खाई न थी-घना जंगल था। पीछे गंगा में युद्ध-सज्जा से सजे जहाज तैयार थे। १८ जून को नवाब की तोप दगी। अंग्रेजों ने तत्काल किले और जहाजों से आग बरसानी शुरू की।

अंग्रेजों का ख्याल था कि लाल बाजार की ओर से ही नवाब आक्रमण करेगा। उस मोर्चे पर उन्होंने बड़ी-बड़ी तोपें लगा रखी थीं। पर अमीचन्द के उस जख्मी जमादार जगन्नाथ की सहायता से नवाब को यह भेद मालूम हो गया कि नगर के दक्षिण में मराठा-खाई नहीं है। अतएव नवाब ने उसी ओर आक्रमण किया।

लाल बाजार के रास्ते के ऊपर पूर्व की ओर जो तोपों का मंच बनाया गया था, उसके सामने ही कुछ दूर पर जेलखाना था। अंग्रेजों ने उसकी एक दीवार को फोड़कर कुछ तोपें जुटा रखी थीं। उनकी योजना थी कि लाल बाजार के रास्ते नवाबी सेना के अग्रसर होते ही जेलखाने और पूर्व वाले मोर्चों से आग बरसाकर सेना को तहस-नहस कर देंगे। परन्तु नवाब की सेना अनजानों की तरह तोपों के सामने सीधी नहीं आई। उसने सावधानी से सड़कवाला रास्ता ही छोड़ दिया। केवल पहरेदारों को मारकर वह उत्तर और दक्षिण को हटने लगी।

देखते-ही-देखते अंग्रेजी तोपों के तीनों मोर्चे घिर गये। अब तो नगर-रक्षा असम्भव हो गई। कलकत्ते के स्वामी हॉलवेल साहब और मोर्चे के अफसर कप्तान क्लेटन किले में भाग गये। मोर्चे नवाबी सेना के कब्जे में आ गये। अब उन्हीं तोपों से किले पर गोले बरसने लगे। किले में कुहराम मच गया।

किले के नीचे गंगा में कुछ नाव और हाज तैयार थे। उनके द्वारा स्त्रियों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देने की व्यवस्था शाम को हुई। स्त्रियों को जहाज तक पहुँचाने को दो अफसर मेनिहम और फ्रांकलेण्ड रात्रि के अन्धकार में चुपके-चुपके निकले। परन्तु जहाज पर पहुँचकर उन्होंने फिर किले में आने से साफ इन्कार कर दिया।

किले की भीतरी दशा अजीब थी। सब कोई दूसरों को सिखाने में लगे थे। पर स्वयं किसी की बात को कोई नहीं मानना चाहता था। बाहर तो नवाबी सेना उन्मत्तों की भाँति कूद-फाँद और शोर मचा रही थी, भीतर

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