प्यालियाँ लिए काठ की पुतली की तरह खड़ी रह गई। केवल फव्वारा ज्यों का त्यों आनन्द से उछल रहा था। बादशाह यद्यपि बिल्कुल बदहवास थे, मगर यह सब देख वे मानो आधे उठकर बोले-ओह। रूपा-दिलरुबा तुम? और ऐं-मेरे दोस्त कर्नल-इस वक्त? यह क्या माजरा है?
आगे बढ़कर और अपनी चुस्त पोशाक ठीक करते हुए तलवार की मूठ पर हाथ रख उटरम ने कहा-"कल आलीजाह की बन्दगी में हाजिर हुआ था, मगर..."
"ओफ मगर-इस वक्त इस रास्ते से? ऐं, माजरा क्या है? अच्छा बैठो, हाँ, जोहरा, एक प्याला-मेरे दोस्त कर्नल के...।"
"माफ कीजिए हुजूर। इस वक्त मैं आनरेबल कम्पनी सरकार के एक काम से आपकी खितमत में हाजिर हुआ हूँ।"
"कम्पनी सरकार का काम? वह काम क्या है?" बादशाह ने कहा।
"मैं तखलिए में अर्ज किया चाहता हूँ।"
"तखलिया। अच्छा, अच्छा, जोहरा। ओ कादिर।"
धीरे-धीरे रूपा को छोड़कर सभी बाहर निकल गए। उस सौन्दर्य-स्वप्न में अवशिष्ट रह गई अकेली रूपा। रूपा को लक्ष्य करके बादशाह ने कहा-यह तो गैर नहीं। रूपा। दिलरुबा, एक प्याला अपने हाथों से दो तो रूपा ने सुराही से शराब उँडेल लबालब प्याला भरकर बादशाह के होंठों से लगा दिया। हाय! लखनऊ की नवाबी का वही अन्तिम प्याला था। उसे बादशाह ने पीकर कहा-"वाह प्यारी। हाँ, अब कहो वह बात। मेरे दोस्त..."
"हुजूर को जरा रेजीडेंसी तक चलना पड़ेगा।"
बादशाह ने उछलकर कहा-“ऐं, यह कैसी बात। रेजीडिंसी तक मुझे?"
"जहाँपनाह, मैं मजबूर हूँ, काम ऐसा ही है।"
"गैरमुमकिन। गैरमुमकिन।” बादशाह गुस्से से होंठ काटकर उठे और अपने हाथ से सुराही से उँडेलकर तीन-चार प्याले शराब पी गए। धीरे-धीरे उसी दीवार से एक-एक करके चालीस गोरे सैनिक, संगीन और किर्च सजाए, कक्ष में घुस आए।
१६७