पृष्ठ:आग और धुआं.djvu/१६६

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नूपुर की ध्वनि सोते हुए यौवन से ठोकर मारकर कहती थी-उठ, उठ, ओ मतवाले, उठ। उन नर्तकियों के बढ़िया चिकनदौजी के सुवासित दुपट्टों से निकलती हुई सुगन्ध उसके नृत्यवेग से विचलित वायु के साथ घुल-मिल-कर गदर मचा रही थी। पर सामने का सुनहरी फव्वारा, जो स्थिर ताल पर बीस हाथ ऊपर फैककर रंगीन जलबिंदु-राशियों से हाथापाई कर रहा था, देखकर कलेजा बिना उछले कैसे रह सकता था।

उसी मसनद पर बादशाह वाजिदअली शाह बैठे थे। एक गंगा-जमनी काम का अलबेला वहाँ रखा था, जिसकी खमीरी मुश्की तम्बाकू जलकर अनोखी सुगन्ध फैला रही थी। चारों तरफ सुन्दरियों का झुरमुट उन्हें घेर-कर बैठा था। सभी अधनंगी, उन्मत्त और निर्लज्ज हो रही थीं। पास ही सुराही और प्यालियाँ रखी थीं, और बारी-बारी से वे उन दुर्लभ होंठों को चूम रही थीं। आधा मद पी-पीकर वे सुन्दरियाँ उन प्यालियों को बादशाह के होंठों में लगा देती थीं। वे आँखें बन्द करके उन्हें पी जाते थे।

कुछ सुन्दरियाँ पान लगा रही थीं, कुछ अलबेले की निगाली पकड़े हुए थीं। दो सुन्दरियाँ दोनों तरफ पीकदान लिए खड़ी थीं, जिनमें बादशाह कभी-कभी पीक गिरा देते थे।

इस उल्लसित आमोद के बीचोबीच एक मुरझाया हुआ पुष्प, कुचली हुई पान की गिलोरी। वही बालिका, बहुमूल्य हीरे-खचित वस्त्र पहने, बादशाह के बिल्कुल अंक में लगभग मूर्छित और अस्तव्यस्त पड़ी थी। रह-रहकर शराब की प्याली उसके मुख से लग रही थी, और वह खाली कर रही थी। निर्जीव दुशाले की तरह बादशाह उसे अपने बदन से सटाए मानो अपनी तमाम इन्द्रियों को एक ही रस से शराबोर कर रहे थे। गंम्भीर आधी रात बीत रही थी। सहसा इसी आनन्द-वर्षा में बिजली गिरी। कक्ष के उसी गुप्त द्वार को विदीर्ण कर क्षणभर में वही रूपा, काले आवरण से नख-शिख ढके निकल आई। दूसरे क्षण में एक और मूर्ति वैसे ही आवेष्टन में गुप्त बाहर निकल आई। क्षणभर बाद दोनों ने अपने आवेष्टन उतार फेंके। वही अग्नि-शिखा ज्वलन्त रूपा और उसके साथ नौरांग कर्नल उटरम।

नर्तकियों ने एकदम नाचना-गाना रोक दिया। बाँदियाँ शराब की

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